Monday, December 22, 2008

कश्मकश

दिल अपनी कशमकश ख़ुद ही ना जाने,

यूँ ही अपनें आप से हम हुए बेगाने।

ना सजती हैं हसीं ना बहते हैं आंसू अब,

हो क्या इलाज जब वजूद लगे ठुकराने?

दुनिया की परवाह नहीं बस तेरा है ग़म,

बिच सफर साथ छोड़ क्यों बने अंजाने ?

क्या दिल को ख्वाहिश का भी हक नहीं कोई?

या कहो शिकायत के बस मिल गए बहाने!

चेहरे पे चेहरा लगा कर जीते हैं जो,

आ गए आज हमें जीने का ढंग सिखाने!

कौन बदला है यहाँ जो बदलेगा 'ताइर'

तरीका-ए-ज़िन्दगी सब आज़ाद हैं अपनाने।

Friday, December 12, 2008

दिन ढलते ढलते...

काफ़ी समय के बाद कुछ रोमानी अंदाज़ की ग़ज़ल लिखी हैं...

दिन ढलते ढलते याद आया तो होगा,
तुम्हे मेरा ख़याल सताया तो होगा!

बेअसर ना गुजरी होगी रात तन्हाई की,
नींद ने भी ख्वाब, दिखाया तो होगा!

फिर सुबह आईने में देख ख़ुद को,
मुझे भी निगाह में पाया तो होगा!

तसव्वुर जब हर पहर सताने लगे,
बेकरार दिल को भी समजाया तो होगा!

'ताइर' के फन का भी जवाब नहीं कोई,
जागते हुए सपना ये सजाया तो होगा!

Tuesday, December 2, 2008

जाने कब होगी सुबह-ए-अमन से मुलाक़ात???

पिछले हफ़्ते मुंबई में हुए आतंकवादी हमले ने सबके दिलो को देहला दिया। उस वक्त बेंगलोर में था मैं । हमले के दुसरे दिन एक सिटी बस में ट्रेवल कर रहा था। बस में रेडियो चल रहा था। कन्नड़ में कुछ अन्नौसमेंट हुआ और उसके बाद गाना आया...'कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियो'... और एकदम से सन्नाटे का माहोल छा गया। गाने के लफ्जों का असर मन पे हो रहा था... न्यूज़ में देखे सीन याद आने लगे और आँखे झिलमिल हो उठी... तभी मेरे पीछे वाली सीट से थोडी सिसकने की आवाज़ आई तो थोड़ा पीछे मुद कर देखा मैंने। करीबन मेरी ही उमर का एक लड़का आंसू पोंछ रहा था। फिर मुह फेर कर दूसरी और देखा तो सामने एक कपल भी अपने आंसू रोक नही पा रहा था। दोनों की आँख में आंसू। और फिर पीछे पलट कर देखा तो और भी काफ़ी ऐसे लोग थे जो देश के इस हाल पर आंसू बहा रहे थे। कंडक्टर की आँखे भी भर आई थी। शायद बेबसी थी... या फिर गुस्से का बहाव...

इस से पहले ऐसा कभी ना सुना था ना कभी महसूस किया था। एक अरसे के बाद दिल बोल उठा...हाँ मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ...

ना अल्फाज़ है कोई, न कोई ख़यालात,

लगे ये दिल खाली, बुझे हुए से जज़्बात।

हर तरफ़ आतंक का माहोल जो बना हुआ,

कैसे मैं मान लूँ, खुदा चलाए कायनात?

चंद धमाकों की मोहताज हो ज़िन्दगी जैसे,

हर लम्हा चल रहे यूँ दहशत के हालात।

चैन-ओ-सुकूं इन्सान अब पाए भी तो कहाँ से?

जब दिल में कुछ और, ज़ुबां पे दूजी बात।

सहमे हुए से दिल, बेनूर से रुखसार यहाँ,

जाने कब होगी सुबह-ए-अमन से मुलाक़ात?

Sunday, October 5, 2008

कैसे कैसे हसीन ख्वाब..

कैसे कैसे हसीन ख्वाब दिखा जाते हो,
खूब है अंदाज़दिल तोड़ के बहलाते हो

मांग कर मुस्कान हमसे हाल--बीमार में,
नाचारी का एहसास क्यों बार बार दिलाते हो?

मकाम--ज़िन्दगी यहाँ थमा हुआ है कब से,
और तुम हो की एक दफ़ा लौट कर ना आते हो

सहारा ना बने लेकिन मशवरा ज़रूर दिया,
दुनिया से सिखा हूनर हम पे आजमाते हो

तसव्वुर में बसे हो और हकीकत से कहीं दूर,
'ताइरसे रिश्ता क्यों  तोड़ते ना निभाते हो???

Friday, October 3, 2008

7 QUIRKS

So here I am writing 7 quirks of mine...coz m TAGGED by a lawyer (don't wanna get sued)...don't know who started dis...bt m caught finally..n don't know who to tag...so ll tag them after getting comments...

neways...here i go...

1) The 1st thing which came 2 my mind after i got tagged... Singing while writing the exams... As far as i remember i cudnt write ne exam without humming a song since my 12th commerce...till d completion of MBA...

2) The 1st thing i do after waking up in d morning...is to switch on my PC and play songs loudly...its my daily tonic...

3) Very irregular about food...i don't take lunch dont remember since when...n while taking d dinner i keep walking in d house...cant sit at one place...

4) A gr8 nail biter...whenever i feel angry or thots are out of control...knowingly or unknowingly i start nail biting... as far as i remember...i hvt used a nail cutter since my scholl days...

5) Late night poetry writing...yes...call dis a hobby or habbit...bt most of my creations r done after meed night...may it b under an open sky or sitting in my room...

6) i need a cup of tea after midnight...dis has been a habbit for more dan last 5-6 year...n no home made tea plz...it must be a tapri...

7) a gr8 movie freak...have watched 32 movies in a week...sitting idle at fnds' place...after completing mba and b4 joining d job... also watched 4 consecutive movies in theatre in a day during dat time... so no competition in dis...

Tuesday, September 23, 2008

ये ही हाल...

ये ही हाल हमेंशा से बना रहा अपना,
हकीकत समझे नहीं, बुनते रहे सपना।

तुम कहो दीवानगी, हम समझे फितरत,
दोनों ही हाल में नामुमकिन हैं खुदी बदलना।

पूछे अगर कोई तो हम क्या कहें बोलो,
साथ तेरा माँगा था या तन्हा सफर में चलना?

इसलिए कर दिया दफ्न हर जज्बात को हमनें,
देखा है दर-ए-मंजिल पे सपनों का बिखरना।

क्या समझेगा ज़माना मकाम-ए-'ताइर' को,
साँस थमी नहीं पर दिल ने छोड़ दिया धड़कना।

Tuesday, September 2, 2008

रॉक ओन - लिव यौर ड्रीम

आज अपनी 'इमेज' से दूर हो के कुछ लिख रहा हूँ... मूवी 'रॉक ओन' पर... और आप बिल्कुल ही मत सोचियेगा की मैं एक और मूवी रिव्यू लिख रहा हूँ... नहीं, मैं तो बस उस मूवी की तारीफ़ में कुछ लिख रहा हूँ...

ये कहानी एक 'रॉक बैंड' की...कॉलेज के दिनों का सबसे कामियाब रॉक बैंड... ४ लोग... सबकी अपनी एक अलग पहचान ...फ़िर भी उस पहचान को भूल कर जीते हैं केवल एक पहचान के खातिर...'मैजिक ' (बैंड) की खातिर...

लेकिन हर व्यक्ति में एक 'इगो' कहीं न कहीं छुपा होता है...और क्रिएटिव लोगो में शायद थोड़ा ज़्यादा... (हाला की समजा ये जाता हैं की वो लोग 'डाउन टू अर्थ' होते हैं...पर ये ग़लत हैं...क्रिएटिव लोगों को अपने 'मान' का ज़्यादा ख़याल रहता हैं... शायद ना दिखाए...पर दिल में तो होता ही हैं) वो ही चीज़ 'मैजिक' को तोड़ती हैं...

और गुज़र जाते हैं १० साल... ४ लोग...४ अलग अलग शख्सियत...

एक है जो बीती हुई बातों को भुला कर आगे बढ़ जाता हैं जीवन में...यादों को बस दिल में दफन कर देता हैं...
दूसरा उन्ही यादों में उलझा रहता हैं... खूब टेलेंटेड होने के बावजूद बन के रह जाता हैं एक नाकामियाब इन्सान...
तीसरा...पहले जैसा था बिल्कुल वैसा ही... लूक्स बदल जाता हैं...स्वाभाव नहीं...ज़िन्दगी जब जब जो जो देती हैं...उसे अपना कर ही खुश हैं...
और चौथा... ज़िन्दगी से लड़ता हैं... हर पल एक लम्हा और चुराता हैं बची ज़िन्दगी में से... केवल एक ही सपना मन में...की 'मैजिक' फ़िर से जिंदा हो और स्टेज पर परफोर्म करें...

४ अलग अलग पहलू ज़िन्दगी के...४ अलग अलग शख्स एक ही ग्रुप के... कोई जज़्बात दिखता हैं...कोई दबा देता हैं... कोई जूठी हसीं सजा लेता हैं... तो कोई ज़िन्दगी का हर हाल अपना लेता हैं...

पर कहीं ना कहीं एक जज़्बा जो है...वो जिंदा हैं... और उसी के लिए फ़िर से मिलते हैं सब...और छा जाता हैं... 'मैजिक'...

मूवी देखते हुए काफ़ी यादें ताज़ा हो गयी... कितने सपने थे कॉलेज के दिनों के... क्या क्या प्लान्स किए थे दोस्तों के साथ...पर सब बिखर गए...'सेटल' होने के चक्कर में सब सपनों से 'बिछड़' गए... या फ़िर अपने आप से? ये बात तो बस दिल ही जानता हैं...

लेकिन...कुछ सपनें जो मरे नहीं...केवल बिछडे थे वो फ़िर मिल गए... शायद कभी सच भी हो जायेंगे...

तब तक के लिए...

'रॉक ओन'

Thursday, August 28, 2008

कभी...

'कोफी विथ कुश' और 'कुश की कलम' वाले कुश भाई ने कुछ दिन पहले कहा की 'ताइर मियां... मिज़ाज बदलिए...' ये बात शायद मैं देर से समजा और ज़िन्दगी पहले समज गई... अचानक एक ऐसी करवट ली...की दिल से निकल आई ये ग़ज़ल...

तुम रुख से नकाब हटा कर मिलो तो कभी,
हम कह दे हाल-ए-दिल, सुनो तो कभी।

गुज़र गया वो दौर हर पल के साथ का,
चंद लम्हों के खातिर ही, पास रुको तो कभी।

पत्थर से इस वजूद को बस इंतज़ार है इतना,
झरना बन के बेह जाऊं, तुम छू लो तो कभी।

हम तो फ़ना कर दे खुदी, प्यार से जो कह दो,
वो गुमान अपने ज़हन का, भूलो तो कभी।

सफर-ए-तनहा उम्मीद-ए-वस्ल पे गुज़रा हैं,
कुछ कदम इस जानीब, तुम चलो तो कभी।

कुबूल है 'ताइर' को जो खता हुई थी उस से,
पर सज़ा भी क्या कम पायी, बोलो तो कभी ?

Wednesday, August 20, 2008

'ग़ज़ल'

काफ़ी विषयों पर काफ़ी कुछ लिखते हैं हम...पर उसी चीज़ पर बहोत कम लिखा गया हैं जो सहारा बनती हैं जज्बातों को लफ्ज़ देने के लिए... कभी इसी सोच से लिखी थी एक 'ग़ज़ल'... आज दोहराने का मन किया हैं...


दिल में दबे जज़्बात लिख दूँ तो बने ग़ज़ल,
तन्हाई में मेरे साथ गुफ्तेगु करे ग़ज़ल।

नासमजी थी अपनी, रोग-ए-इश्क लगा लिया,
बिखरी सी धड़कन में होंसला भरे ग़ज़ल।

हिसाब-ए-जहाँ से जब मेहरूम हूँ जिया,
हर मकाम-ए-सफर मेरे संग चले ग़ज़ल।

निगाहें अश्क बिन जब प्यासी रह जाए तो ,
सहारा ले लफ्जों का, ज़ार ज़ार बहे ग़ज़ल।

अब पूछो ना 'ताइर' से क्यों लिखता है वो ?
समझ पाता कोई तो हम ना कहते ग़ज़ल।

Thursday, August 14, 2008

अब तक...

सफर बस वैसा ही बरक़रार है अब तक,
ख़ुद को ख़ुद ही का इंतज़ार है अब तक।

चैन-ओ-सुकून मिले भी तो कहाँ से?
ज़हनो दिल के बिच एक दीवार है अब तक।

छोड़ दिया तुमने फ़िर भी आज़ाद ना हुआ,
जज्बातों पे तेरा जो इख्तियार है अब तक।

आज की ख़बर न फिक्र आने वाले कल की,
बीते हुए कल का शायद वो खुमार है अब तक।

क्या हो इलाज उसका किसी दवा या दुआ से?
अपने ही वजूद का 'ताइर' बीमार है अब तक।

Saturday, August 2, 2008

अब कहाँ वो दिन???

सर जी (डॉ अनुराग) को पढ़ते पढ़ते काफ़ी बार कॉलेज के दिन याद आ जाते हैं... कभी दिल खुश होता हैं तो कभी उस वक्त की याद से ग़मगीन...मगर फ़िर भी एक अलग सी कशिश तो रहती ही हैं...सर जी का शुक्रिया अदा करता हूँ बीते हुए लम्हों को फ़िर से जिंदा करने के लिए...
हर किसी के जीवन के कुछ खास दिन जुड़े रहते हैं कॉलेज के सालों से... तो आज 'फ्रेंडशिप डे' पर ये कविता उन्ही लम्हों के नाम...

अब कहाँ वो कॉलेज के दिन
और कहाँ वो बोरिंग लेक्चर्स ?
अब नहीं कोई एक्साम का टेंशन
ना कोई टोकने वाले प्रोफेसर्स...
गुज़र गए वो दिन
जिस से भागते थे हम कभी
कैम्पस में दुनिया जीतने के
सपने सजाते थे सभी...

बहार निकल कर जैसे खो गए भीड़ में
लड़ते हैं अब कुछ कर दिखाने की जिद्द में...
लेकिन नोटों की चमक और सिक्कों की खनक
फीकी पड़ जाती हैं...
पॉकेट मनी से जमी यारों की महफिल
जब याद आती हैं...
हर छोटी खुशी पे जो जश्न मनाते थे
कैसी भी मुश्किल में साथ निभाते थे...

मगर आज हर दिन एक सा ही रहता हैं
खुशी या ग़म सब चुपचाप बहता हैं
शायद इसी लिए दिल
उन दिनों को भूल नहीं पाता
और फरियाद करता रहे की...
वक्त लौट क्यों नहीं आता?
वो वक्त, लौट क्यों नहीं आता???




Wednesday, July 30, 2008

ब्लास्ट्स के बाद...

ब्लास्ट्स के बाद मन कुछ इस हाल में था की कुछ लिखने पढने का मन नहीं कर रहा था... बस एक ही सवाल था और है की...आख़िर और कब तक? क्यों हम कुछ नहीं कर रहे? क्यों इतने बड़े देश में कोई भी नेता नहीं जो जवाब दे कुछ गिने चुने कायरों को?

और कल आख़िर जवाब मिल ही गया जैसे... इतना ही ख्याल आया की आख़िर नेता भी तो आते हैं समाज से... लोग कहते हैं की वो नेता ऐसा बोलता हैं , और वो वैसा कहता हैं... पर मैं इतना ही समजता हूँ की नेता भी तो वोही बोलेंगे जो लोग सुन ना चाहते हैं... कोई धर्म के नाम पर...कोई जाती के...कोई भाषा के...कोई गरीबी के... सब अपने अपने तरीके से राजनीती करते हैं...

पर कामियाबी तो हम ही देते हैं ना उन्हें? आख़िर इस देश की जनता को भी तो वो ही सब बातों में मज़ा आता हैं... सब एक दुसरे पे ऊँगली उठाते हैं...बस....और कुछ नहीं...

लोगों ने कब किसी से हिसाब माँगा की ५ साल में कितना विकास हुआ? लोगों ने कब सुरक्षा को ले कर आवाज़ उठाई सरकार के खिलाफ़? शायद कभी नहीं...
सब राम सेतु को ले कर दंगा करेंगे... कहीं कोई दरगाह रास्ता बड़ा करने के लिए हटानी पड़े तो बवाल करेंगे... सबको आरक्षण चाहिए... हर जगह पे शार्टकट...

मैंने देखा है ... दो नए लोग एक दुसरे से मिलते हैं और जहाँ थोडी बातचीत होती हैं...सीधा ही पूछते हैं...आप किस भगवन में मानते हैं? किसकी पूजा करता हैं? आप का वतन कौन सा हैं?
और बात वहां नही रूकती... सामने वाला हर सवाल का जवाब भी विस्तार से देता हैं...(कर लो बटवारा...)

हर बात राजनीती से नहीं जुड़ी... हर बात जुड़ी है अपने समाज से...व्यक्तिगत ख्याल से...
पर शायद...सारी बातें फिजूल ही हैं...किसी को नहीं बदलना यहाँ... ओर ये भी अनुभव किया है मैंने की अगर कोई इन सब से ऊपर उठ के जीना चाहता भी है तो शान्ति से लोग जीने नहीं देते...

आज... २ साल पहले हुए मुंबई बोम्ब ब्लास्ट के बाद लिखी एक कविता फ़िर से लिखना लाज़मी लगता हैं...

यहाँ इतनी छोटी हैं हस्ती हमारी
जब चाहे कोई मिटा देता आ के,
पैसे का हथियार ओर हथियार से मौत
बढती नहीं दुनिया इस सोच से आगे...

बाज़ार में इस जहाँ के, बिक जाए वजूद,
ज़हन में झांखो, ये सच है या झूठ?
शामिल हैं हम भी इस तबाही की साज़िश में,
मौत के हाथों जिंदगी बेचने की गुजारिश में...

खामोश रह कर तमाशा देखते हैं
खुली आँखों पर भी परदा रखते हैं,
खुदगर्जी हमारी ले डूबेगी हम सब को
आज किसी ओर की, तो अपनी बारी आएगी कल को...

Thursday, July 24, 2008

क्या मैं वो ही हूँ या कोई और...?

उन दिनों की बात हैं जब मैं सपने बुना करता था
खुशी या ग़म से जीने का एहसास तो रहता था...

कभी एक मीठी नज़र कईं रंग भर जाती
तो बेरुखी से उस शख्स की दुनिया मुरझाती,
कभी जोश-ओ-जुनूँ होता मंजिल को पाने का
और कोई लम्हा रहता अश्को में समाने का।

उन दिनों...
हर छोटे हासिल से झूमता था जहाँ
और हर मात पे थमता था जहाँ

धीरे धीरे दौर वोह गुज़रता रहा
वक्त के साथ मैं भी ताल बदलता रहा
और आज जब देखा ख़ुद को
गुज़रे कल के आईने में
तो पाया ख़ुद को...
बेजान मूरत सा
बेनूर सूरत सा...
मैं भी दुनियादारी का शिकार हो गया
कुछ पाने की चाह में ख़ुद खो गया...

अब बढ़ रहा हूँ आगे
लेकिन तनहा है सफर
खोखली हसीं सजा तो ली
आंसू बह ना पाए मगर...

आज एक ही सवाल है ज़हन में...
' क्या मैं वो ही हूँ या कोई और,
या ये भी एक मकाम है,
गुज़र जाएगा ये दौर ? '

Sunday, July 20, 2008

देश में...

पिछले कुछ महीनों से जो हालात बने हुए है देश में...उस पर कुछ लिखना लाज़मी था...कहीं 'भूमिपुत्र' और भाषा के नाम पर गरीबों तो कहीं आतंकवाद की दहशत से मासूमों को जीने नहीं दिया जा रहा... कहीं बाप बेटी के ही खून के इल्जाम में फसा था तो कहीं आरक्षण के मुद्दे पर बवाल मचा था... और अब 'आश्रम' में बच्चों की हत्याओं को ले कर कहीं शहर में फ़िर से दंगे भड़क रहे हैं... तो व्यथित मन से उठे ख्यालों को लफ्ज़ दे दिए...

आज भी वो ही आलम बना हुआ है देश में,
मज़हब-ओ-ज़बां पे सब बँटा देखा है देश में।

हजारों साल से लड़ते लड़ते थके नहीं लोग,
और कहे 'देशप्रेम' का जज्बा भरा है देश में।

जगह जगह इश्वर-अल्लाह के मकान खड़े करें,
बेघर करोड़ों का जब की काफिला है देश में।

चोरी, डकैती, खुदकुशी, बलात्कार, और क्या क्या,
'भगवान' की दया से खूब बढ़ रहा है देश में।

माहोल में सबको बदलाव ज़रूर चाहिए मगर,
फ़िर भी कोई ख़ुद को ना बदलता है देश में।


Thursday, July 17, 2008

बस...बहोत हो गया...

बड़े दिनों से अलग अलग ब्लॉग पर पढ़ रहा हूँ... नारी स्वातंत्र्य और नारी सशक्तिकरण के बारे में... लेकिन कभी इस चर्चा में शामिल नहीं हुआ था ये ही सोचते हुए की ... sometimes, no reaction is the best reaction... और वैसे भी इतने ज़्यादा लोग इस विषय पर लिख ही तो रहे हैं...की मेरे लिखने ना लिखने से फर्क ही नही पड़ता...

लेकिन आज लिखना ज़रूरी लग रहा हैं...एक साहब का ऑरकुट पर अपना ब्लॉग पढने के लिए संदेश आया...और पढ़ ली उनकी पोस्ट...और हो गया दिमाग ख़राब...
क्या है ये सब...जिसे देखो वो ' नारी सशक्तिकरण' और 'नारी स्वातंत्र्य' का झंडा लिए घूम रहा है अपने ब्लॉग पर...ऐसा लग रहा हैं जैसे इन्टरनेट की दुनिया में ब्लॉग के रास्ते रैली निकाली है सबने...

मैं कुछ चीजों पर ध्यान दोहराना चाहता हूँ... मेरे विचारो से किसी की सहमति नही चाहता ... बस अपने विचार लिख रहा हूँ...
सबसे पहली और अहेम बात तो ये ही है की ये जो लोग लिखे जा रहे है नारी उत्कर्ष के लिए... वोही सबसे बड़े दुश्मन बन रहे है नारी के...क्यों की पहले तो वो लोग बेवजह ही स्त्री - पुरूष भेदभाव फैलाते हैं... और बाद में विचार हीनता का इल्जाम किसी और पे ठोकते हैं... हाँ, मानता हूँ की 'मेल-फिमेल केमिस्ट्री' दुनिया की शुरुआत से थी और रहेगी आख़िर तक...लेकिन उसका एक अलग वजूद है और कशिश भी हैं... पर हर चीज़ को और हर विषय को केवल स्त्री-पुरूष के भेदभाव तक ले जाना या हर कहीं केवल वो ही देखना एक कमजोरी है...एक मानसिक बीमारी हैं...
दूसरी बात ये है की आप जब ऐसा लिखते हो 'नारी स्वातंत्र्य' उसका मतलब ही आप ये मानते हो की नारी गुलाम हैं...अरे ऐसे ख़यालात फैलाने की क्या ज़रूरत हैं? कौन कहता है की नारी गुलाम हैं? ये लिखने वाले लोगो के मन की उपज हैं... कईं बार तो ऐसा लगता हैं की उनको बस स्त्री-पुरूष भेदभाव भड़काना है और मज़ा लेना हैं...

हाँ...मैं ये ज़रूर मानता हूँ की अपने देश में काफ़ी जगाओ पर स्त्रियों के साथ ग़लत व्यवहार होता हैं...पर क्या ये केवल उन तक सिमित हैं? कभी इन चीज़ों से ऊपर उठ कर देखो तो ये हर जगह किसी न किसी रूप में फैला हैं... कभी बच्चो के साथ शिक्षक की और से तो कभी खूब कहलानेवाले 'संत' की और से... कभी संस्कार और परम्परा के नाम पर माता-पिता की और से बच्चो की बलि चढ़ती हैं... तो कभी माडर्न होने के नाम पर बच्चे माँ-बाप को घर से निकाल देते हैं... काफ़ी समस्याएं हैं...

फ़िर भी हर बार केवल नार नारी और नारी की बिन बजाने वाले लोगो को शायद और कुछ नज़र ही नही आता... और मान भी ले उनको सच में इतनी फिक्र हैं तो ज़रा वो ख़ुद अपने ज़हन में झान्खे और ख़ुद से पूछे की किसी पीड़ित नारी की मदद करने के लिए उन्होंने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने और कमेंट्स लेने के अलावा क्या किया? क्या कभी किसी को कहीं से छुडाने की कोशिश की? क्या कभी किसी को अपनी शक्ति के हिसाब से आर्थिक मदद की?

मैं यकीं के साथ कहता हूँ की नारी स्वातंत्र्य के आधे से ज़्यादा योद्धा इसका जवाब देने से कतरायेंगे...

(ये लेख किसी पर व्यक्तिगत रूप से नही लिखा गया हैं...)

Tuesday, July 15, 2008

हर दिन ढलता हैं...

हर दिन ढलता हैं, शाम-ए-याद का तोहफा दे कर
बह जाए दिल जिसमें, बिखरे हुए अरमान ले कर
गुमसुम सा मन, लाचार से जज़्बात मेरे
रौशनी की चाह में, ढूंढ लाते अंधेरे...

एक सन्नाटे सा माहोल बन जाए चारों ऑर
फ़िर भी ज़हेन में चले सवालों का शोर
क्यों ख्वाब सारे बिखर जाते हैं?
क्यों हसी के लम्हे आंसू दे जाते हैं?
क्यों कोई उम्मीद बर नही आती?
क्यों ऐसे तनहा हम जीए जाते हैं?

जवाब जब कहीं से नज़र नही आता,
खयालों की टक्कर से जब हार जाता
तो अपने ही ऊपर मैं हूँ मुस्कुराता
और ' आने वाला कल अच्छा है'
ये ही सोच के दिल बहलाता...

Sunday, July 13, 2008

थमी हुई सी हैं जिंदगी...

थमी हुई है जिंदगी आज उस मकाम पर,
पत्थर बन गया हूँ, मैं भी खुदा के नाम पर।

ना खुशी है ना ग़म, सारे एहसास लापता,
फ़िर क्या हसना-रोना, आगाज़ पे या अंजाम पर?

दुनिया से जो सीखा उसी को इस्तेमाल किया,
फ़िर जाने क्यों हैरान है सब मेरे इस काम पर?

काफ़िर का लगा तोहमत, जब हकीकत जान चुका,
लेकिन तुम्हे मेरा शुक्रिया अदा, दिए इनाम पर।

आसमां वाले का इन्साफ, 'ताइर' को ना समजाओ ,
जब बिकती है जिंदगी यहाँ चंद सिक्को के दाम पर।

Thursday, July 10, 2008

अब रिश्ता ख़तम करना लाज़मी हो गया...

कुछ महीनों पहले लिखी ये ग़ज़ल आज फ़िर से दोहराने का मन कर रहा हैं...

अब रिश्ता ख़तम करना लाज़मी हो गया,
की मैं तुम्हारे लिए, 'आम आदमी' हो गया।

नूर था कभी जो फलक के चाँद का,
आज वोही शख्स, बंजर ज़मीं हो गया।

कभी थी मुकम्मल हर तमन्ना तुजसे,
देख आज तू, दिल में कमी हो गया।

रोशन था हर मंज़र तेरे ही ख्याल से,
अब बहे जो आँखों से, वो नमी हो गया।

छोड़ दो 'ताइर' को बस उसके हाल पर,
यादों से ही जहाँ उसका, रेशमी हो गया।

Tuesday, July 8, 2008

ना खुशी ना ग़म ना ख्वाहिश कोई...

ना खुशी ना ग़म ना ख्वाहिश कोई,
अब जिंदगी से रही न गुज़ारिश कोई।

खुदा भी थक गया इम्तिहान ले कर,
तभी नही करता वो आज़माइश कोई।

माफ़ किया तुझे, सब खता के बाद,
मत कर अब और तू फरमाईश कोई।

आंखों की प्यास आईने में झलक उठी,
सालों से नही हुई इन में बारिश कोई।

'ताइर' जी रहा बिल्कुल बेफिक्र यहाँ,
फकीर के खिलाफ़ क्या करें साज़िश कोई ???

Sunday, June 29, 2008

अब भी वक्त हैं...

अब भी वक्त हैं, पेहचान ले,
जिंदगी मुझे तू अपना मान ले।

बदनाम न हो खुदा इस लिए,
लोग मुझे कसूरवार जान ले।

चलता कैसा कारोबार यहाँ देखो,
सब आंसू के बदले मुस्कान ले।

हर घाव कागज़ पर क्या लिखूं?
तू ख़ुद का ही झाँख गिरेबान ले।


थोड़े वक्त का मेहमान है 'ताइर',
आ के उतार अपना एहसान ले।

Wednesday, June 25, 2008

कितने ही राज़...

कितने ही राज़ खोल देती दिल के,
आँखे उनकी आँखों से मिल के।

देख उन्हें ज़बान साथ छोड़ देती,
और ये होठ रह जाते सिल के।

मुस्कान जो बिखेर जाए वो हम से,
महकते गुल-ए-अरमान खिल के।

छा जाए जब वो शमा बन कर,
कर दे रोशन लम्हें मेहफिल के।

उतना ही दूर जैसे हो गया 'ताइर',
पहुँचा जितना करीब मंजिल के।

Monday, June 23, 2008

रोना है अगर...

रोना है अगर, कुछ इस तरह से रो,
की आँसू ना बहे, आवाज़ ना हो।

छोड़ दो आज परवाह दुनिया की,
कहे जो सदा-ए-दिल तुम सुनो।

छूना है फ़लक, अरमाँ है बुलंद,
फैलाओ पंख और ख्वाबों को जीयो।

ना मुर्झाओ किसी फूल की तरह,
ढल जाए दिन तब चाँद बन खिलो।

करता है 'ताइर' अर्ज़ इतनी तुम से,
सब है हासिल, अपने आप से गर मिलो।

Thursday, June 19, 2008

रात भर...

शोर-ए-सन्नाटा में हम जागते हैं रात भर,
बीते लम्हों में लम्हें गुज़ारते हैं रात भर।

यारों के संग जहाँ मौज मस्ती थी कभी,
उन्ही गलियों से वो पल मांगते हैं रात भर।

बादलों से छुप छुप कर झाँख रहे चाँद में,
एक शख्स की सूरत हम तराशते हैं रात भर।

माहोल-ए-तन्हाई में सिगरेट-ओ-अल्फाज़,
धागा-ए-धुएँ से ग़ज़ल बांधते हैं रात भर।

सब हकीकत दिन में दिखा दे जहाँ मगर,
'ताइर', सपनें क्यों भला भागते हैं रात भर?

Tuesday, June 17, 2008

ज़रुर कोई तक़दीर का मारा होगा...

ज़रुर कोई तकदीर का मारा होगा वो,
वरना रात को सड़क पे kयों आवारा होगा वो?

शाम से ही चाँद की राह तकता रहे मगर,
डूबते आफ़ताब का ना सहारा होगा वो।

और फिर सुबह से पूजा करता है सूरज की,
पूनम तक चाँद का ना दुबारा होगा वो।

बचपन जो पुरा हाथ फैला कर बीते,
कभी तो सोचो कितना बेचारा होगा वो!

फिजूल की उम्मीद 'ताइर' लगा बैठा उस से,
ख़ुद का ना हो सका, क्या हमारा होगा वो ?

Saturday, June 14, 2008

ग़ज़ल गुलाब ना महताब लिखते हैं...

ग़ज़ल गुलाब ना माहताब लिखते हैं,
हम तो तेरे सवाल का बस जवाब लिखते हैं।

जानते हैं सब लिखा हुआ है पहले से,
फ़िर भी क्यों जाने, लोग ख्वाब लिखते हैं?

सूरत उस चाँद सी पायी है तुने मगर,
सीरत जान कर ही हम आफ़ताब लिखते हैं।

हम तो चंद शेरो में बात तमाम कर दे,
आप जाने कैसे, मोटी किताब लिखते हैं?

हाल-ए-फकीर में इस लिए जी रहा 'ताइर',
वो हासिल-ए-ऊंस को ही खिताब लिखते हैं।

Tuesday, June 10, 2008

वो छुप कर ज़माने से...

वो छुपकर ज़माने से मिलना सुनी गलियों में
वो दबी हुई बातें पिरोना उंगलियों में
चुपचाप बैठे बैठे लम्हों को जोड़ना
मिला कर सिर्फ़ आँखे अनकही बोलना

आज भी मेह्कता हैं हर वो पल
गुज़रा था संग तेरे जो कल

दिल में खूबसूरत तसवीर बना के
तनहा लम्हों को यादो से सजा के
ले जाता हैं दूर मुझे कहीं इस जहाँ से
मिलती है मुस्कान अश्कों से वहाँ पे

और मन शुक्रिया करता है ज़िंदगी का उस पल
जब याद आता है तुजसे मुलाक़ात का वो गुज़रा हुआ कल...

Wednesday, June 4, 2008

एक चाह ये जीने की...

एक चाह ये जीने की, जो मिटती नहीं,
एक प्यास-ए-ऊंस, की बुझती नहीं।

एक मेरा हाल, हर समज से परे,
एक मेरी फितरत, जो बदलती नहीं।

एक है तू, की हर ख़याल में शामिल,
एक मेरी हस्ती, कहीं दिखती नहीं।

एक नशा धुएँ का, पल दो पल का,
एक आग इस दिल की, बुझती नहीं।

एक मेरी सूरत, हाल-ए-दिल बोल दे,
एक मेरी सीरत, ज़बान साफ खोलती नहीं।

एक तेरा जहाँ, हिसाब-किताब में कायम,
एक दुनिया- ए-'ताइर', हकीकत बनती नहीं।

Tuesday, May 27, 2008

देख कर ये हाल-ए-जहाँ...

देख कर ये हाल-ए-जहाँ, परेशां सा रेह जाता हूँ
सवालों के भंवर में बड़ा उलझ जाता हूँ
क्यों ये ऐसा है, क्यों वो वैसा हैं?
इन्सान की पहचान क्यों उसका पैसा हैं?

ना चाह कर भी उस दौड़ में शामिल हुआ मैं भी
दुनिया से अलग चलने को, ना काबिल हुआ मैं भी
चाहता हूँ क्या और क्या कर रहा हूँ?
रोज़ लगता है मैं नाकाम मर रहा हूँ...

अगर है खुदा तो, दस्तूर-ए-जहाँ बदल,
वरना उडा ले 'ताइर' को, की किस्सा हो ख़तम...

Monday, May 12, 2008

लोग तुझे ...

लोग तुझे मूरत में इसी लिए बिठाते हैं ,
की तू बस देखा कर, वो जो किए जाते हैं।

जब चाहा पूज लिया, जब चाहा डूबा दिया ,
बन्दे तेरे अजीब सा ये त्यौहार मनाते हैं।

भूखे प्यासे इन्सान बाहर खड़े मगर,
दीवारों में बंध, पत्थर खूब सजाते हैं।

हमें तो तेरे वजूद पर भी शक है यहाँ ,
होगा तो कभी बोलेगा, सोच कर सुनाते हैं।

'ताइर' को काफिर कहने वाले मेरे वाईज़,
मज़हब से आदमी की पहचान बनाते हैं।

Thursday, May 8, 2008

है वजूद खुदा का ?

है वजूद खुदा का, कैसे मान लिया आप ने?
अनजाने डर को खूब नाम दिया आप ने ...

हम को तो ऐतबार का सबब नही मिलता ,
कहीं बेवजह तो नही, भरोसा किया आप ने?

अपने ही बंदो से जो बेपर्दा न हो सका,
फलक पे मकाम उसका, मान लिया आप ने ...

गर है वह हर जगह तो कैद क्यों करना पड़ा?
या कहो उसे भी कोने में बिठा दिया आप ने ...

दहलीज़ पे जा के चंद सिक्के चढा आते हो,
खुदा से भी कारोबार, खूब किया आप ने ...

औरो को खुशी दे, 'ताइर' दुआ कर लेता ,
उस पर भी बना दी कितनी कहानियाँ आप ने ?!!

Tuesday, May 6, 2008

EK KASH MAAR LE...

Hai kya haal ab parwah na kar
beeti hui baat dil mein na bhar
saanso ke gubbare foonk se utaar le
ek jashn aur manaa, ek kash maar le...

Aawara lamho se zindagi chura tu
sannate ke saaz se mehfil sajaa tu
koi fikar koi dard na ho, aise waqt guzaar le
ek jashn aur manaa, ek kash maar le...

Masruf zamane se kya taluq bhi ho?
tere sang tanhai, jab mashuq si ho
khamosh chale dua, khuda ko pukar le
ek jashn aur manaa, ek kash maar le...

Saanso ke gubbare foonk se utaar le
ek jashn aur manaa, ek kash maar le...

Saturday, May 3, 2008

DIL KI BAAT SACH HAI...

Dil ki baat sach hain, jaanta hoon main,
Par zehan bhi juth nahi, maanta hoon main.

Shoharat se hi jahan kamiyabi tolega,
Aur keemat-e-jazbat pehchanta hoon main.

Kabhi sikko sur mein, kabhi apni dhun mein,
Waqt ke saath zindagi aise dhaalta hoon main.

Baki har lamha bhale chheen le duniya,
Din mein do pal hi apne chahta hoon main.

Badi anmol cheez ki TAEER dua kar raha,
Par sukun se zyada, kya mangta hoon main?

Monday, April 28, 2008

PAR AAWAZ NA HUI...

Toot gaya har jaam, par aawaz na hui,
tanha hai har sham, par aawaz na hui…

Takrav-e-jazbat ke beech bhi aaj,
hamne liya tera naam, par aawaz na hui…

Tum laut gaye muh mod kar jab,
vajud hua badnam, par aawaz na hui…

Rab se mera rishta raha kuchh aisa,
pahuncha har payam, par aawaz na hui…

Iskadar zindagi woh basar kar gaya,
Ho gayi umr tamam, par aawaz na hui….

Saturday, April 26, 2008

EK BINDIYA AUR...

ek bindiya aur maang mein kanku chhod diya,
usne khud ko farz aur mujhe tanhai se jod diya...

dard bhi hain aur fakr bhi, uski biwi hone ka,
raat-e-vasl dhalte hi, sarhad ko muh mod diya...

har khayal mein fikr, har saans mein duaa rahe,
salamat rahe woh, jisne mera honsla tod diya...

jaanib-e-sarhad se jab koi paigham bhi aaye to,
rehta hain dar, kahin usne jahan to nahi chhod diya?

mulk agar yaad rakhe sab qurbaaniyan uski, to,
haasil hoga maksad, jis khatir jahan se muh mod diya...

Friday, April 25, 2008

MAA...

Kitna akela hoon
aaj is duniya ki bhid mein
reh jaati kahwahishein
dab kar dil mein...

koi nahi saath aisa jo sune ankhahi
rehta hoon gumsum, lage na man kahin
aur bhigi aankho se kabhi
jab dekhta hoon aasman ko
nazar aaye teri surat ae maa

jaise jaanti hai tu mere har haal ko
de rahi honsla apne laal ko
aur gunje kaano mein tera woh dular
sun maa, fir woh hi pyar se pukar
teri god mein chain de sone ko hoon bekarar...

kuchh pal ko aaram chahiye
jahan ke hisab-kitab se
bematlab hona hain
haar-jeet ke kheetab se

zindagi mein thodi si masumiyat lauta de,
maa, suna koi lori aur god mein sula de...

Tuesday, April 22, 2008

BAHOT HAIN KHAYAL...

Bahot hai khayal, magar kuchh saaf nahin,
raaz-e-dil chhupane ko aaj ek lihaaf nahin...

Sab saza kubul humein siva ye khamoshi,
Chahe itna hi keh do, tumne kiya maaf nahin...

Baato ko meri gaur se samjo to jaan loge,
hun insaniyat ke saath, mazhab ke khilaf nahin...

Dekh haal-e-jahan to ye hi lagta hai khuda,
Teri adaalat mein bhi milta insaaf nahin...

AB HO JAAUN PAGAL...

Ab ho jaaun paagal to jee loon zara sa,
Is haal mein to hoon kab se mara mara sa.

Aur koi nahi yahan jo meeta sake mujhe,
Apne hi vajud se hoon dara dara sa.

Aansu chhalak aaye to khali ho man,
Gham-e-uns se dil hai ye bhara sa.

Bujhi hui saanse, sehmi hui dhadkan,
Vaqt bhi apne makam par jaise thehra sa.

Mat kar TAEER sochon mein khudi barbad,
Zindagi ek raaz hai bada gehra sa.

Thursday, April 17, 2008

KEH DO KI AB TO...

Keh do ki ab to koi rishta nahi hum se,
ubhar paye dil, fir ummid ke gham se.

Hai wo hi saza mukarrar tumhare liye,
tujhsa hi rukh, tu paye naye humdum se.

Har woh gali banjar ho gayi dekho,
Khilte the gul jahan vasl-o-shabnam se.

Shikva nahi la-haasil ka taqdeer se ab to,
tohfa-e-sabak-e-isha jo mila sanam se.

Puchh kar haal ehsan na jatao tum,
TAEER udan bharega keval apne dum se.

Sunday, April 13, 2008

KUCHH TIRVENIYAAN...

Khule jab hoth, zaban fisal gayi,
ude jab hosh, umar nikal gayi,
Ab baccho ko kahaniyan sunate hain.

Main to dhal jaaunga, tu jis haal mein dhalegi,
Tere hi ikhtiyar mein ye hasti chali jayegi.
Har mausam bhi teri inayat ka paigham lage...

zindagi mein aane vale kal agar pata hota,
fir yahan koi us khuda ko na manta hota?
humein khud par hai aitbar, taqdir khud tarashenge...

Baki hai ab bhi kuchh tishnagi dil mein,
na bujhi pyas aankho ki jhilmil mein,
Nigahon mein teri vo aitbar ki kami thi...

Suna hai 'tu pyar ka sagar hai',
fir kyon tishnagi tujhe pa kar hai?
ulfat ke pani mein namak ghul gaya...?!

un dino kagaz se kashti aur kichad se ghar banate the,
bachpan ki baarish me befikra ho kar nahate the!!!
ab jo pani barse, to kapdon ki fikra hone lagti hai....

koi mazhab koi sarhad na ho to kya ho jahan?
ye dharti muskuraye jaise 'ek-rangi' aasman...
yun to insan ne pani ke bhi Tukde kar diye hai...

samandar mein jab tha, rahi dharti ki khwaish,
sochta tha ki vahan par nahi koi aazmaish.
par dhup-e-sehra mein dekho pani ki galatfahemi...

Ab jo miloge tum, to koi shikva na karenge,
bite hue kal ki baat mein lamhe na zaya karenge,
kab se na jane us kal ke intezar mein umar bit rahi...

KUCHH SHAYARIYAN...

Kehte hai duniya vo bas khayal hai,
Vajud yahan apna ban gaya sawal hai,
Logo ki nazar se dekhte rahe khud ko,
Zindagi yun auron ki hone ka malal hai.

Na samaj aaye aisi soch ka shikar hoon,
Kabse na jane apne aap ka bimar hoon,
Manch par hote hue bhi nazar nahi aata,
Zindagi ke natak ka vo lapata kirdar hoon.

Hoon abhi tanha tera khayal hai ru-ba-ru,
Haal is dil ka aaj bhi kal ke hu-ba-hu,
Zamane se bhag sakun apne aap se kahan?
bhul jaaun khud ko, to yaad rahe tu-hi-tu.

Kabhi kabhi zindagi aisi bhi lagti hai,
Ashko mein khushi ki lehar si behti hai,
Na karo ummid har ehsas jatane ki,
Mehsus gar karo to khamoshi bhi kuchh kehti hai.

Kaafir ke bhes mein fakiri ki haalat,
Labon pe gaali aur dil mein ibadat,
Ban ke mohra chal raha hoon kab se,
Kabhi to aazad ban jine ki de de ijazat.

Sapno ke jahan ki koi seema nahi hoti,
Khwaishon ko jahan ki parvah nahi hoti,
Yun to khuda hum pe bhi meharban hai,
Bas maangne par hi puri dua nahi hoti.

Har ek jazbat ko zaban nahi milti,
Har nek aarzu ko nigah nahi milti,
Muskan sajaye rakkho to duniya hai saath,
Aansu ko aankh mein bhi panah nahi milti.

AISE KUCHH SAPNO MEIN...

Aise kuchh sapno mein ab rehta hai man,
Khule aasman mein ab basta hai man.

Bevajeh hasna kabhi anjane aansu,
Khil ke apne andar bikharta hai man.

Baadlon ki khidki se jab jhankhe vo chand,
Jhum kar use thamne uchhalta hai man.

Apne hi lafzon se dhoka diya khud ko,
Khud hi chal nahi samajta hai man.

Jeet jaye TAEER jo man par ho kaaboo,
Kab talak maat de sakta hai man?

KOI ILAJ NAHIN...

Koi ilaj nahi is dard-e-zindagi ka,
Khuda kabhi to jawab de bandagi ka.

Beh jaye ashq to bujhe pyas aankho ki,
Bata koi ilaj nachar tishnagi ka.

Aaina bhi aks ki jo hasi udata hain,
Sochu kya raaz dikha use diwangi ka !

Thukra diya tumne fir bhi shikva nahi,
Sabab mil gaya humein aawargi ka.

Ud gaya TAEER aur hairan hai sab,
Chalo kabhi to ehsas hua maujudgi ka.

HAAL-E-DIL JAB KEH NA PAYE...

Haal e dil jab keh na paaye aur kaagaz pe utar diya,
Duniya ne use ghazal aur nikamma humein karar diya.

Ghav aur gehra hua marham ki ummid se,
Vaqt ki aazmaish ne tohfa e intezar diya.

Deewaron mein ghar ki kaid rehta hoon is kadar,
Aap hi se lad lad ke sabkuchh bas haar diya.

Samjega koi to kabhi paak niyat ko apni,
Behlate rahe dil, man ko jutha aitbaar diya.

Shakhsiya-e-TAEER ek aaeena hai gar dekho,
Saaf baat kehne vajud khud ka nisar diya.

DEKHUN TO DOOR TAK...

Dekhun to door tak koi nahin,
Sochun to duniya meri hai yahin.

Shamil hua jo zehnodil mein,
Bin uske aaj kho gaya hun kahin.

Dard ka nasha aur nashe se dard,
Kal tha jahan, aaj bhi vahin.

Gol is duniya mein kahan bhagu?
Thaka haara laut aata hun yahin.

TAEER teri fitrat hai kuchh aisi,
Maut talak chain paayega nahin.