Thursday, July 5, 2018

संजू...इमेज मेकओवर का मास्टरपीस !!!

आज एक ऐसी फिल्म के बारे में बात करनी है जो की इस साल की सबसे कामियाब फिल्म बनने जा रही है...नाम है 'संजू'। पिछले हफ्ते रिलीज़ हुई इस फिल्म की ज़्यादातर लोग बहोत तारीफ़ कर रहे हैं और फिल्म ज़बरदस्त पैसा बना भी रही है । पर क्या वाकई ये इतनी उमदा और बेहतरीन फिल्म है??

जवाब है... ना ।  संजू...फिल्म नहीं, इमेज मेकओवर का मास्टरपीस है !

कुछ क्षणों के लिए भूल जाईये की ये एक जानेमाने फिल्म एक्टर के जीवन पर बनी फिल्म है और सोचिये । क्या ऐसी ही कहानी कोई आम आदमी की होती या फिर काल्पनिक ही होती तो क्या उसे भी उतना ही प्यार और पैसा मिलता?

बिलकुल नहीं ।

इस फिल्म को अगर आप ज़रा गौर से देखे तो केवल एक ही नज़रिये से दिखाई गयी कहानी है कि 'वह बेगुनाह है'। क्या वाकई?

ज़रा सोचिये, कौन सा सीधा आदमी हर तरह के ड्रग्स लेता है और फिर भी साफ़ रहता है? पापा से सभी डरते है और माँ भी बीमार होती है, तो क्या ड्रग्स लेना शुरू कर दे?  कौन सा साफ़ आदमी अपने परिवार की सुरक्षा के लिए एके-56 रखता है? क्या जो गन नहीं रखते उन्हें अपने परिवार की फिक्र नहीं? और 350 से ज़्यादा लड़कियों के साथ सोना कौन से संस्कार है? शबडकोष में विशेष शब्द है इसके लिए।

फिल्म में माँ-बाप को पूरी तरह लाचार बताया गया है और हम मान भी ले? अरे हमारे आसपास कोई बच्चा ज़रा सी शैतानी कर दे तो भी हम बोल देते है की 'क्या ऐसे  संस्कार दिए है माँ-बाप ने' और यहाँ तो हर गुनाह पे माँ-बाप से बस मिलती है तो हौंसला अफ़ज़ाई और उम्मीद की सलाह! वाह !

ऐसा कैसे मुमकिन है की कोई आदमी जीवन में जो भी गुनाह करता है सब औरों की या हालात की वजह से? और अगर यह सब जायज़ है तो फिर तो कोई गुन्हेगार हो ही नहीं सकता...क्योंकि सारा खेल ही संग और समय का है। जब कुछ नहीं बचता तो मामला मिडीया पे थोप दो क्योंकि उन्हें 'मसाला' चाहिए! अरे भाई, अगर ऐसा ही होता तो वह मसाला औरों के नाम पे क्यों नहीं छपा? दुसरे भी तो कलाकार थे और है।

यह तो हुई बात मुख्य किरदार की जिस पर फिल्म बनी  है। अब अगर मैं इसे एक फिक्शनल मूवी के नज़रिये से देखूं तो भी कहाँ कोई दम है? फिल्म कुछ चुनिंदा सीन्स को जोड़ के बनाई हो ऐसे चलती है । दो कलाकार रणबीर और विक्की  कौशल की अदाकारी ने जान भरी है फिल्म में । भावनात्मक परिस्थितियाँ दिखा कर और उन्हें शब्दों की माला में सजा कर परोस दिया बस ।

हिरानी जी, यह 'बॉयोपिक' तो नहीं है, यह तो बस आप का 'नजरिया' है जो आप ने एक 'इमेज मेकओवर' के लिए इस्तेमाल कर लिया। इल्यूज़न ऐसा तो क्रिएट किया कि लोग देख भी रहे हैं और समझ भी नहीं पा रहे कि वाकई क्या देखने आये थे और क्या देख के जा रहे है!

लगे रहो राजू भाई...

Friday, August 11, 2017

Big Films....Poor Collections...How Long?

Barring Bahubali 2 (which wasn't an original Hindi film), 2017 has been a very dull year for Bollywood so far. Biggest names of the industry have garnered some of the weakest numbers, be it Tubelight, Jagga Jasoos or JHMS. Halls are running empty. So is this really surprising or alarming?

There may be many factors and reasons for this dull show till date. But what I feel is, this is a healthy scenario which should have happened much earlier than this. Audiences were being taken for granted for last so many decades and till before few years, they had to accept whatever was offered to them. But things have changed drastically within last year or two. 

First there were smartphones and then came the cheap data. The tsunami of cheap data has changed the entire pattern people used to consume the content. In the times of 'real time updates, audiences are evolving faster than one could imagine. When anything and everything you like is available at your fingertips, why to wait for a so called 'inspired' one? Gone are the days when people used to stand in long queues for tickets to see their favourite stars on big screen. Times have changed and they are their in your pocket screen everywhere. 

Here I am not at all denying the fan following of the big names in the industry. They have the power to pull in the crowd, but up to a certain level only. Rising ticket prices and easy access to better contents are two biggest factors coming in between a star and a fan paying to see him or her. Readiness to pay for a star only is decreasing with time. Also, the rise in number of options of  'out of home' activities play a big role, too.

Time has come for the makers of movies to take the audience more seriously and offer them more than just another 'typical Bollywood' movie. Many times in the past, people have followed Bollywood trends, but now is the time for Bollywood to follow the trend and that's to move away from trend. Be creative, be original and we will happily pay for the ticket.



Tuesday, May 2, 2017

रोज़ सरहद पर होती है कुरबानी

आजकल देश की सेना पर रोज़ लगभग रोज़ हमले हो रहे हैं।  शायद देश को 'शहादत' की खबरों की इतनी आदत हो गई है की ज़्यादातर लोग अब इस बात पर गौर भी नहीं करते।  लेकिन सवाल ये है की आखिर कब तक हम यूँ ही सुनते रहे और सहते रहे? क्यों हमारे जवानों की ज़िन्दगी की अहमियत हम समझते नहीं? क्यों हमारा खून नहीं खौलता ये रोज़ के बलिदानों से? क्यों हम चुपचाप इसे बर्दाश्त कर रहे हैं?

हर सिपाही किसी घर का सदस्य भी होता है और उसकी ज़िन्दगी भी उसके परिवार के लिए इतनी ही किमती है जितनी आपकी और मेरी हमारे परिवार के लिए।  लेकिन शायद हम सवाल करना भूल गए हैं।  शायद हमें चुपचाप सहने की आदत सी लगी है।  लेकिन कल जो हुआ उस से भी खून ना खुले तो फिर सवाल हम पे उठने चाहिए ना की किसी  और पे...


रोज़ सरहद पर होती है कुरबानी
रोज़ घिसे पिटे दावों की वही कहानी
कब तक बर्दाश्त करें हम बोलो
अब ना खौले खून तो बर्बाद ज़िन्दगानी।

कोई जवाब तो देना ही चाहिए
इससे ज़्यादा ना आज़माइए
और ना सहा जाए कोई वार
ज़बाँ भी अब उनकी अपनाइए।

कब तक झूठा सीना तान चलना
अपनी ही बात कह कर मुकरना
होंसले कहीं पस्त ना हो जाये
वक़्त पे पड़ेगा अब कर गुज़ारना।

-ताइर