Tuesday, September 23, 2008

ये ही हाल...

ये ही हाल हमेंशा से बना रहा अपना,
हकीकत समझे नहीं, बुनते रहे सपना।

तुम कहो दीवानगी, हम समझे फितरत,
दोनों ही हाल में नामुमकिन हैं खुदी बदलना।

पूछे अगर कोई तो हम क्या कहें बोलो,
साथ तेरा माँगा था या तन्हा सफर में चलना?

इसलिए कर दिया दफ्न हर जज्बात को हमनें,
देखा है दर-ए-मंजिल पे सपनों का बिखरना।

क्या समझेगा ज़माना मकाम-ए-'ताइर' को,
साँस थमी नहीं पर दिल ने छोड़ दिया धड़कना।

8 comments:

  1. तरावट है ग़ज़ल में... और आपसे यही उमीद भी रहती है..

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  2. तुम कहो दीवानगी, हम समझे फितरत,
    दोनों ही हाल में नामुमकिन हैं खुदी बदलना।

    kya baat hai! acchi lagi gazal.

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  3. क्या समझेगा ज़माना मकाम-ऐ-'ताइर' को,
    साँस थमी नहीं पर दिल ने छोड़ दिया धड़कना।

    tumhaare last sher ki kyu mujhe pasand aate hai yaar ????

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  4. तुम कहो दीवानगी, हम समझे फितरत,
    दोनों ही हाल में नामुमकिन हैं खुदी बदलना।
    :
    waise to sabhi achche sher hai...par ye jyada achcha laga .... :)

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  5. वाह, वाह!! बेहतरीन! आनन्द आ गया!!

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  6. पूछे अगर कोई तो हम क्या कहें बोलो,
    साथ तेरा माँगा था या तनहा सफर में चलना?
    " what a thought and composition, great"

    Regards

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  7. अपने चिर परिचित अंदाज में शब्दों से जादू जगाती आप की एक और विलक्षण रचना...

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  8. बहुत सुन्दर, हृदय स्पर्शी भाव युक्त कविता!

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