Wednesday, November 17, 2010

इस सच को सच मानूँ कैसे?

अक्सर यूँ होता है ज़िन्दगी में की हम जिनके साथ रहना चाहते हो उनसे दूर होना पड़ता है l सफ़र चलता रहता हैं, लोग मिलते रहते हैं और बिछड़ते रहते हैं l वैसे तो आज कल 'सोसिअल नेटवर्किंग' और मोबाइल ने इन टच रहना बड़ा आसन कर दिया है...फिर भी साथ बने रहने का मज़ा अलग ही होता हैं l
पर कभी कभी ऐसा भी होता है की हम किसी के साथ रह कर भी साथ नहीं होते l हमारी लाख कोशिशों के बावजूद रिश्ता अपना वजूद कहीं खो देता है l एक तकल्लुफ का दुआर जैसे बना रहता है और फिर धीरे धीरे ख़ामोशी अपनी जगह बना लेती हैं...हम जान कर भी उस सच को मान नहीं पाते और ना अपना कर भी जिस को ठुकरा नहीं पाते !

तुम ही कहो, इस सच को सच मानूँ कैसे,
साथ है मगर दूर, मैं रहूँ कैसे ?

लगातार रिश्ता तोड़ने की कोशिश हैं तेरी,
तेरी जीत की दुआ भला माँगू कैसे ?

कभी कोई बात खुल कर भी करो ना,
बिना इज़हार दबे जज़्बात समझूँ कैसे?

क्यों ना एक मौका मोहब्बत को दे हम,
बिना लड़े ही हथियार, छोड़ दूँ कैसे ?!