Thursday, July 24, 2008

क्या मैं वो ही हूँ या कोई और...?

उन दिनों की बात हैं जब मैं सपने बुना करता था
खुशी या ग़म से जीने का एहसास तो रहता था...

कभी एक मीठी नज़र कईं रंग भर जाती
तो बेरुखी से उस शख्स की दुनिया मुरझाती,
कभी जोश-ओ-जुनूँ होता मंजिल को पाने का
और कोई लम्हा रहता अश्को में समाने का।

उन दिनों...
हर छोटे हासिल से झूमता था जहाँ
और हर मात पे थमता था जहाँ

धीरे धीरे दौर वोह गुज़रता रहा
वक्त के साथ मैं भी ताल बदलता रहा
और आज जब देखा ख़ुद को
गुज़रे कल के आईने में
तो पाया ख़ुद को...
बेजान मूरत सा
बेनूर सूरत सा...
मैं भी दुनियादारी का शिकार हो गया
कुछ पाने की चाह में ख़ुद खो गया...

अब बढ़ रहा हूँ आगे
लेकिन तनहा है सफर
खोखली हसीं सजा तो ली
आंसू बह ना पाए मगर...

आज एक ही सवाल है ज़हन में...
' क्या मैं वो ही हूँ या कोई और,
या ये भी एक मकाम है,
गुज़र जाएगा ये दौर ? '

7 comments:

  1. अब बढ़ रहा हूँ आगे
    लेकिन तनहा है सफर
    खोखली हसीं सजा तो ली
    आंसू बह ना पाए मगर...

    अच्छा लिखा है आपने।

    ReplyDelete
  2. sabke sath yahi manzar hai dost.....aor har aadmi apna kal bhi pana chahta hai aor aaj ki daud me bhi rahna chahta hai.

    ReplyDelete
  3. achha pravah hai ...aasha hi jeevan ka satya hai

    ReplyDelete
  4. अब बढ़ रहा हूँ आगे
    लेकिन तनहा है सफर
    खोखली हसीं सजा तो ली
    आंसू बह ना पाए मगर...

    " koee khud manjil bnkee aayege nazar, muskraygee thumare bhee liye ek nazar........"

    ReplyDelete
  5. achcha likha hai...baat bhi sahi hai.

    ReplyDelete
  6. bhut badhiya. kya likhate ho bhai. bhut sundar.

    ReplyDelete