Tuesday, May 27, 2008

देख कर ये हाल-ए-जहाँ...

देख कर ये हाल-ए-जहाँ, परेशां सा रेह जाता हूँ
सवालों के भंवर में बड़ा उलझ जाता हूँ
क्यों ये ऐसा है, क्यों वो वैसा हैं?
इन्सान की पहचान क्यों उसका पैसा हैं?

ना चाह कर भी उस दौड़ में शामिल हुआ मैं भी
दुनिया से अलग चलने को, ना काबिल हुआ मैं भी
चाहता हूँ क्या और क्या कर रहा हूँ?
रोज़ लगता है मैं नाकाम मर रहा हूँ...

अगर है खुदा तो, दस्तूर-ए-जहाँ बदल,
वरना उडा ले 'ताइर' को, की किस्सा हो ख़तम...

2 comments:

  1. वरना उडा ले 'ताईर' को, की किस्सा हो ख़तम...

    बहुत खूब ताईर मिया.. बहुत अच्छे

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  2. beautiful thoughts. nice execution of words.

    वरना उडा ले 'ताईर' को, की किस्सा हो ख़तम...

    i liked this line the most

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