Thursday, August 28, 2008

कभी...

'कोफी विथ कुश' और 'कुश की कलम' वाले कुश भाई ने कुछ दिन पहले कहा की 'ताइर मियां... मिज़ाज बदलिए...' ये बात शायद मैं देर से समजा और ज़िन्दगी पहले समज गई... अचानक एक ऐसी करवट ली...की दिल से निकल आई ये ग़ज़ल...

तुम रुख से नकाब हटा कर मिलो तो कभी,
हम कह दे हाल-ए-दिल, सुनो तो कभी।

गुज़र गया वो दौर हर पल के साथ का,
चंद लम्हों के खातिर ही, पास रुको तो कभी।

पत्थर से इस वजूद को बस इंतज़ार है इतना,
झरना बन के बेह जाऊं, तुम छू लो तो कभी।

हम तो फ़ना कर दे खुदी, प्यार से जो कह दो,
वो गुमान अपने ज़हन का, भूलो तो कभी।

सफर-ए-तनहा उम्मीद-ए-वस्ल पे गुज़रा हैं,
कुछ कदम इस जानीब, तुम चलो तो कभी।

कुबूल है 'ताइर' को जो खता हुई थी उस से,
पर सज़ा भी क्या कम पायी, बोलो तो कभी ?

Wednesday, August 20, 2008

'ग़ज़ल'

काफ़ी विषयों पर काफ़ी कुछ लिखते हैं हम...पर उसी चीज़ पर बहोत कम लिखा गया हैं जो सहारा बनती हैं जज्बातों को लफ्ज़ देने के लिए... कभी इसी सोच से लिखी थी एक 'ग़ज़ल'... आज दोहराने का मन किया हैं...


दिल में दबे जज़्बात लिख दूँ तो बने ग़ज़ल,
तन्हाई में मेरे साथ गुफ्तेगु करे ग़ज़ल।

नासमजी थी अपनी, रोग-ए-इश्क लगा लिया,
बिखरी सी धड़कन में होंसला भरे ग़ज़ल।

हिसाब-ए-जहाँ से जब मेहरूम हूँ जिया,
हर मकाम-ए-सफर मेरे संग चले ग़ज़ल।

निगाहें अश्क बिन जब प्यासी रह जाए तो ,
सहारा ले लफ्जों का, ज़ार ज़ार बहे ग़ज़ल।

अब पूछो ना 'ताइर' से क्यों लिखता है वो ?
समझ पाता कोई तो हम ना कहते ग़ज़ल।

Thursday, August 14, 2008

अब तक...

सफर बस वैसा ही बरक़रार है अब तक,
ख़ुद को ख़ुद ही का इंतज़ार है अब तक।

चैन-ओ-सुकून मिले भी तो कहाँ से?
ज़हनो दिल के बिच एक दीवार है अब तक।

छोड़ दिया तुमने फ़िर भी आज़ाद ना हुआ,
जज्बातों पे तेरा जो इख्तियार है अब तक।

आज की ख़बर न फिक्र आने वाले कल की,
बीते हुए कल का शायद वो खुमार है अब तक।

क्या हो इलाज उसका किसी दवा या दुआ से?
अपने ही वजूद का 'ताइर' बीमार है अब तक।

Saturday, August 2, 2008

अब कहाँ वो दिन???

सर जी (डॉ अनुराग) को पढ़ते पढ़ते काफ़ी बार कॉलेज के दिन याद आ जाते हैं... कभी दिल खुश होता हैं तो कभी उस वक्त की याद से ग़मगीन...मगर फ़िर भी एक अलग सी कशिश तो रहती ही हैं...सर जी का शुक्रिया अदा करता हूँ बीते हुए लम्हों को फ़िर से जिंदा करने के लिए...
हर किसी के जीवन के कुछ खास दिन जुड़े रहते हैं कॉलेज के सालों से... तो आज 'फ्रेंडशिप डे' पर ये कविता उन्ही लम्हों के नाम...

अब कहाँ वो कॉलेज के दिन
और कहाँ वो बोरिंग लेक्चर्स ?
अब नहीं कोई एक्साम का टेंशन
ना कोई टोकने वाले प्रोफेसर्स...
गुज़र गए वो दिन
जिस से भागते थे हम कभी
कैम्पस में दुनिया जीतने के
सपने सजाते थे सभी...

बहार निकल कर जैसे खो गए भीड़ में
लड़ते हैं अब कुछ कर दिखाने की जिद्द में...
लेकिन नोटों की चमक और सिक्कों की खनक
फीकी पड़ जाती हैं...
पॉकेट मनी से जमी यारों की महफिल
जब याद आती हैं...
हर छोटी खुशी पे जो जश्न मनाते थे
कैसी भी मुश्किल में साथ निभाते थे...

मगर आज हर दिन एक सा ही रहता हैं
खुशी या ग़म सब चुपचाप बहता हैं
शायद इसी लिए दिल
उन दिनों को भूल नहीं पाता
और फरियाद करता रहे की...
वक्त लौट क्यों नहीं आता?
वो वक्त, लौट क्यों नहीं आता???