Monday, December 22, 2008

कश्मकश

दिल अपनी कशमकश ख़ुद ही ना जाने,

यूँ ही अपनें आप से हम हुए बेगाने।

ना सजती हैं हसीं ना बहते हैं आंसू अब,

हो क्या इलाज जब वजूद लगे ठुकराने?

दुनिया की परवाह नहीं बस तेरा है ग़म,

बिच सफर साथ छोड़ क्यों बने अंजाने ?

क्या दिल को ख्वाहिश का भी हक नहीं कोई?

या कहो शिकायत के बस मिल गए बहाने!

चेहरे पे चेहरा लगा कर जीते हैं जो,

आ गए आज हमें जीने का ढंग सिखाने!

कौन बदला है यहाँ जो बदलेगा 'ताइर'

तरीका-ए-ज़िन्दगी सब आज़ाद हैं अपनाने।

Friday, December 12, 2008

दिन ढलते ढलते...

काफ़ी समय के बाद कुछ रोमानी अंदाज़ की ग़ज़ल लिखी हैं...

दिन ढलते ढलते याद आया तो होगा,
तुम्हे मेरा ख़याल सताया तो होगा!

बेअसर ना गुजरी होगी रात तन्हाई की,
नींद ने भी ख्वाब, दिखाया तो होगा!

फिर सुबह आईने में देख ख़ुद को,
मुझे भी निगाह में पाया तो होगा!

तसव्वुर जब हर पहर सताने लगे,
बेकरार दिल को भी समजाया तो होगा!

'ताइर' के फन का भी जवाब नहीं कोई,
जागते हुए सपना ये सजाया तो होगा!

Tuesday, December 2, 2008

जाने कब होगी सुबह-ए-अमन से मुलाक़ात???

पिछले हफ़्ते मुंबई में हुए आतंकवादी हमले ने सबके दिलो को देहला दिया। उस वक्त बेंगलोर में था मैं । हमले के दुसरे दिन एक सिटी बस में ट्रेवल कर रहा था। बस में रेडियो चल रहा था। कन्नड़ में कुछ अन्नौसमेंट हुआ और उसके बाद गाना आया...'कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियो'... और एकदम से सन्नाटे का माहोल छा गया। गाने के लफ्जों का असर मन पे हो रहा था... न्यूज़ में देखे सीन याद आने लगे और आँखे झिलमिल हो उठी... तभी मेरे पीछे वाली सीट से थोडी सिसकने की आवाज़ आई तो थोड़ा पीछे मुद कर देखा मैंने। करीबन मेरी ही उमर का एक लड़का आंसू पोंछ रहा था। फिर मुह फेर कर दूसरी और देखा तो सामने एक कपल भी अपने आंसू रोक नही पा रहा था। दोनों की आँख में आंसू। और फिर पीछे पलट कर देखा तो और भी काफ़ी ऐसे लोग थे जो देश के इस हाल पर आंसू बहा रहे थे। कंडक्टर की आँखे भी भर आई थी। शायद बेबसी थी... या फिर गुस्से का बहाव...

इस से पहले ऐसा कभी ना सुना था ना कभी महसूस किया था। एक अरसे के बाद दिल बोल उठा...हाँ मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ...

ना अल्फाज़ है कोई, न कोई ख़यालात,

लगे ये दिल खाली, बुझे हुए से जज़्बात।

हर तरफ़ आतंक का माहोल जो बना हुआ,

कैसे मैं मान लूँ, खुदा चलाए कायनात?

चंद धमाकों की मोहताज हो ज़िन्दगी जैसे,

हर लम्हा चल रहे यूँ दहशत के हालात।

चैन-ओ-सुकूं इन्सान अब पाए भी तो कहाँ से?

जब दिल में कुछ और, ज़ुबां पे दूजी बात।

सहमे हुए से दिल, बेनूर से रुखसार यहाँ,

जाने कब होगी सुबह-ए-अमन से मुलाक़ात?