Friday, August 11, 2017

Big Films....Poor Collections...How Long?

Barring Bahubali 2 (which wasn't an original Hindi film), 2017 has been a very dull year for Bollywood so far. Biggest names of the industry have garnered some of the weakest numbers, be it Tubelight, Jagga Jasoos or JHMS. Halls are running empty. So is this really surprising or alarming?

There may be many factors and reasons for this dull show till date. But what I feel is, this is a healthy scenario which should have happened much earlier than this. Audiences were being taken for granted for last so many decades and till before few years, they had to accept whatever was offered to them. But things have changed drastically within last year or two. 

First there were smartphones and then came the cheap data. The tsunami of cheap data has changed the entire pattern people used to consume the content. In the times of 'real time updates, audiences are evolving faster than one could imagine. When anything and everything you like is available at your fingertips, why to wait for a so called 'inspired' one? Gone are the days when people used to stand in long queues for tickets to see their favourite stars on big screen. Times have changed and they are their in your pocket screen everywhere. 

Here I am not at all denying the fan following of the big names in the industry. They have the power to pull in the crowd, but up to a certain level only. Rising ticket prices and easy access to better contents are two biggest factors coming in between a star and a fan paying to see him or her. Readiness to pay for a star only is decreasing with time. Also, the rise in number of options of  'out of home' activities play a big role, too.

Time has come for the makers of movies to take the audience more seriously and offer them more than just another 'typical Bollywood' movie. Many times in the past, people have followed Bollywood trends, but now is the time for Bollywood to follow the trend and that's to move away from trend. Be creative, be original and we will happily pay for the ticket.



Tuesday, May 2, 2017

रोज़ सरहद पर होती है कुरबानी

आजकल देश की सेना पर रोज़ लगभग रोज़ हमले हो रहे हैं।  शायद देश को 'शहादत' की खबरों की इतनी आदत हो गई है की ज़्यादातर लोग अब इस बात पर गौर भी नहीं करते।  लेकिन सवाल ये है की आखिर कब तक हम यूँ ही सुनते रहे और सहते रहे? क्यों हमारे जवानों की ज़िन्दगी की अहमियत हम समझते नहीं? क्यों हमारा खून नहीं खौलता ये रोज़ के बलिदानों से? क्यों हम चुपचाप इसे बर्दाश्त कर रहे हैं?

हर सिपाही किसी घर का सदस्य भी होता है और उसकी ज़िन्दगी भी उसके परिवार के लिए इतनी ही किमती है जितनी आपकी और मेरी हमारे परिवार के लिए।  लेकिन शायद हम सवाल करना भूल गए हैं।  शायद हमें चुपचाप सहने की आदत सी लगी है।  लेकिन कल जो हुआ उस से भी खून ना खुले तो फिर सवाल हम पे उठने चाहिए ना की किसी  और पे...


रोज़ सरहद पर होती है कुरबानी
रोज़ घिसे पिटे दावों की वही कहानी
कब तक बर्दाश्त करें हम बोलो
अब ना खौले खून तो बर्बाद ज़िन्दगानी।

कोई जवाब तो देना ही चाहिए
इससे ज़्यादा ना आज़माइए
और ना सहा जाए कोई वार
ज़बाँ भी अब उनकी अपनाइए।

कब तक झूठा सीना तान चलना
अपनी ही बात कह कर मुकरना
होंसले कहीं पस्त ना हो जाये
वक़्त पे पड़ेगा अब कर गुज़ारना।

-ताइर

Friday, April 7, 2017

Our obsession with politics

We are a nation highly obsessed with politics. Politics is what we eat, drink and breathe. It runs into our blood. People of our great nation turn to news channels for entertainment more than the real news. Checkout the shows!!! Starting from government forming to decision making at home, everything is filled with politics. We rarely think of something as 'for all'. Most of our thoughts are based upon what is there for me?

Yes, it's human nature to think and behave for self benefit. But to become a great nation, we must rise above this. The people of great nations on this planet have taught us that, time and again.

We are a nation surprisingly sentimental about things that matter less on a larger prospective. We care about Bollywood and Cricket much more than our neighbors. We worry about celebrities more than our near and dear ones.

We are unable to unite for one single cause. We are not only unable to rise above religion and castes, but have been diving deep into that well which divides us as a nation. Reservation has been used as a political tool to fool people and earn votes. 

Pollution, corruption, education, healthcare, infrastructure, employment, etc. are those of many issues which we must be discussing and asking questions about, but we are not. Yes we do discuss them now and then, but they haven't been our main tools for judging a government.


Something is wrong with us, right from the beginning and that may be our upbringing, education or mixture of all, but we are on the verge of failing as a society for sure. What is wrong and what is right is always debatable but only thing I am sure is, if it doesn't fall into the 'nation first' agenda, it's not right.

Sunday, April 2, 2017

बच्चे, पेरेंट्स और गैजेट्स

हम उस दौर में जी रहें हैं जहाँ टेक्नोलॉजीने हमारी ज़िन्दगी जितनी आसान कर दी है उतनी ही लाचार भी हैं। हम चीजों को आसान बनाने के चक्कर में शायद इतने उलझ गए की रुकना कहाँ है शायद हम समझ नहीं पा रहे।  और एक आम इंसान पर इसका फायदा जो हुआ है उतना ही नुकसान।

मेरे हम उम्र लोग इस बात  से बिलकुल तालुक रखेंगे की जो स्मार्टफोन उनके लिए दुनिया से जुड़े रहने का जरिया है, वहीँ उनके बच्चों के लिए खिलौना! बच्चे मैदान कम मोबाईल पर ज़्यादा होते हैं। बहोतों बार मैं देखा है की माता-पिता अपने बच्चों को मोबाईल ऑपरेट करते हुए देख एक गर्व सा महसूस करतें हैं। नहीं होनी चाहिए लेकिन मुझे थोड़ी तकलीफ ज़रूर होती हैं। जिस उम्र में बच्चें खेलने कूदने चाहिए, जिस से की उनका शारीरिक विकास ठीक से हो उस उम्र में गैजेट्स से उनको अपाहिज बनाने तक का काम हो रहा है  और वो भी गर्व से।  

और फिर पेरेंट्स की फ़रियाद भी होती हैं की बच्चा या तो मोबाईल से खेलता रहता हैं या टीवी देखता रहता हैं।  
मैं उन पेरेंट्स से पूछना चाहता हूँ की आखिर ये हुआ कैसे? क्या आपने कभी सोचा की बच्चा आपने जो किया वो ही कर रहा है और ना की जो कहा। बचपनमें हम देख कर सीखते है, सुन कर नहीं।  

बच्चे को जब आपका वक्त चाहिए तब आप खुद व्हाट्सएप्प या फेसबुक लेके बैठे रहते हैं। उसके सवालों का जवाब देने का वक़्त ही कहाँ था आपके पास।  आप उसके फोटो और विडियो पे वाहवाही कमाने बैठे थे।  बच्चा कुछ कर रहा है कैमरे की नहीं अपनी आँखों से देखो, उसे अच्छा महसूस होगया और होगा।  वरना बच्चा धीरे धीरे वही सारी चीज़ें सीखता रहा। मैं कुछ ऐसे पेरेंट्स को भी जानता हूँ जिन्होंने २-३ साल के बच्चे की प्रोफ़ाइल भी फेसबुक पे बना रक्खी हैं।  अरे, आखिर ज़रूरत क्या है? आपकी प्रोफ़ाइल ही काफ़ी नहीं क्या? उसका वक्त आने पे बच्चा भी बना ही लेगा ना। 

बच्चे को दुनिया में लाने वाले आप है।  उसे आपका वक़्त और प्यार चाहिए ना की लोगों की आपके सोशल मीडिया प्रोफाइल पे वाहवाही।  गैजेट्स को कमज़ोरी नहीं, ताकत बनाओ।  आदत नहीं, ज़रिया बनाओ।  या फिर उस दिन के लिए तैयार रहो जिस दिन बच्चा अपने ही घर में आप से व्हाट्सएप्प या स्नैपचैट से बात करेगा और आप पछताने के सिवा कुछ नहीं कर पाओगे।