Sunday, March 4, 2012

वोही सुकून नहीं है

एक बिल्डिंग से निकल कर
वेहिकल पे थोड़ी दूर चल कर
एक बड़ी सी बिल्डिंग में
घूस जाते है शौपिंग के बहाने
या मूवी का लुत्फ़ उठाने
और कुछ भी न सूझे तो खाना दबाने!
वैसे तो कट जाता है
पर सोचो तो शहर का जीवन
बहोत ही लगता है पकाने!

पूरा हफ्ता कमाई में गुज़रे
और वीकेंड फ़िज़ूल खर्ची करने में
हर बार फिर भी वो ही सवाल
'इस बार कहाँ जाए', दिल बहलाने?
यूँ ही बेमतलब गुज़रती चलती है
ज़िन्दगी हर रोज़ आहें भारती है ।

थोड़ी सी आज़ादी इन मकानी जंगलों से,
थोडा सा सुकून चाहिये
जो ना मिले इंसानी दंगलों से ।
बेसबब इधर उधर भटकते रहना
पूछे कोई हाल तो 'कट रही है' कहना
इसी में उम्र तमाम हो रही हैं,
लेकिन मन को जो चाहिए
वो सुकून नहीं है,
वोही सुकून नहीं है ।