Tuesday, June 17, 2008

ज़रुर कोई तक़दीर का मारा होगा...

ज़रुर कोई तकदीर का मारा होगा वो,
वरना रात को सड़क पे kयों आवारा होगा वो?

शाम से ही चाँद की राह तकता रहे मगर,
डूबते आफ़ताब का ना सहारा होगा वो।

और फिर सुबह से पूजा करता है सूरज की,
पूनम तक चाँद का ना दुबारा होगा वो।

बचपन जो पुरा हाथ फैला कर बीते,
कभी तो सोचो कितना बेचारा होगा वो!

फिजूल की उम्मीद 'ताइर' लगा बैठा उस से,
ख़ुद का ना हो सका, क्या हमारा होगा वो ?

8 comments:

  1. एक एक शेर बिना सीढ़ी के दिल में उतर गया.. ला जवाब ग़ज़ल.. वाकई.. और हा एक सुझाव भी है.. लिखना बंद मत करिएगा.. वरना हमारा क्या होगा..

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  2. बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने...बधाई.
    नीरज

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  3. बचपन जो पूरा हाथ फैला कर बीते,
    कभी तो सोचो कितना बेचारा होगा वो!

    बहुत खूब लिखा है आपने ..अच्छा लगा इसको पढ़ना

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  4. my modern galib, maze to hai aap ki likhae me

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  5. शाम से ही चाँद की राह तकता रहे मगर,
    डूबता आफ़ताब का ना सहारा होगा वो।

    vah vah......taeer

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  6. बचपन जो पूरा हाथ फैला कर बीते,
    कभी तो सोचो कितना बेचारा होगा वो!


    --बहुत बढ़िया.

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  7. शाम से ही चाँद की राह तकता रहे मगर,
    डूबते आफ़ताब का ना सहारा होगा वो।
    "very touching"

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