अब भी वक्त हैं, पेहचान ले,
जिंदगी मुझे तू अपना मान ले।
बदनाम न हो खुदा इस लिए,
लोग मुझे कसूरवार जान ले।
चलता कैसा कारोबार यहाँ देखो,
सब आंसू के बदले मुस्कान ले।
हर घाव कागज़ पर क्या लिखूं?
तू ख़ुद का ही झाँख गिरेबान ले।
थोड़े वक्त का मेहमान है 'ताइर',
आ के उतार अपना एहसान ले।
Sunday, June 29, 2008
Wednesday, June 25, 2008
कितने ही राज़...
कितने ही राज़ खोल देती दिल के,
आँखे उनकी आँखों से मिल के।
देख उन्हें ज़बान साथ छोड़ देती,
और ये होठ रह जाते सिल के।
मुस्कान जो बिखेर जाए वो हम से,
महकते गुल-ए-अरमान खिल के।
छा जाए जब वो शमा बन कर,
कर दे रोशन लम्हें मेहफिल के।
उतना ही दूर जैसे हो गया 'ताइर',
पहुँचा जितना करीब मंजिल के।
आँखे उनकी आँखों से मिल के।
देख उन्हें ज़बान साथ छोड़ देती,
और ये होठ रह जाते सिल के।
मुस्कान जो बिखेर जाए वो हम से,
महकते गुल-ए-अरमान खिल के।
छा जाए जब वो शमा बन कर,
कर दे रोशन लम्हें मेहफिल के।
उतना ही दूर जैसे हो गया 'ताइर',
पहुँचा जितना करीब मंजिल के।
Monday, June 23, 2008
रोना है अगर...
रोना है अगर, कुछ इस तरह से रो,
की आँसू ना बहे, आवाज़ ना हो।
छोड़ दो आज परवाह दुनिया की,
कहे जो सदा-ए-दिल तुम सुनो।
छूना है फ़लक, अरमाँ है बुलंद,
फैलाओ पंख और ख्वाबों को जीयो।
ना मुर्झाओ किसी फूल की तरह,
ढल जाए दिन तब चाँद बन खिलो।
करता है 'ताइर' अर्ज़ इतनी तुम से,
सब है हासिल, अपने आप से गर मिलो।
की आँसू ना बहे, आवाज़ ना हो।
छोड़ दो आज परवाह दुनिया की,
कहे जो सदा-ए-दिल तुम सुनो।
छूना है फ़लक, अरमाँ है बुलंद,
फैलाओ पंख और ख्वाबों को जीयो।
ना मुर्झाओ किसी फूल की तरह,
ढल जाए दिन तब चाँद बन खिलो।
करता है 'ताइर' अर्ज़ इतनी तुम से,
सब है हासिल, अपने आप से गर मिलो।
Thursday, June 19, 2008
रात भर...
शोर-ए-सन्नाटा में हम जागते हैं रात भर,
बीते लम्हों में लम्हें गुज़ारते हैं रात भर।
यारों के संग जहाँ मौज मस्ती थी कभी,
उन्ही गलियों से वो पल मांगते हैं रात भर।
बादलों से छुप छुप कर झाँख रहे चाँद में,
एक शख्स की सूरत हम तराशते हैं रात भर।
माहोल-ए-तन्हाई में सिगरेट-ओ-अल्फाज़,
धागा-ए-धुएँ से ग़ज़ल बांधते हैं रात भर।
सब हकीकत दिन में दिखा दे जहाँ मगर,
'ताइर', सपनें क्यों भला भागते हैं रात भर?
बीते लम्हों में लम्हें गुज़ारते हैं रात भर।
यारों के संग जहाँ मौज मस्ती थी कभी,
उन्ही गलियों से वो पल मांगते हैं रात भर।
बादलों से छुप छुप कर झाँख रहे चाँद में,
एक शख्स की सूरत हम तराशते हैं रात भर।
माहोल-ए-तन्हाई में सिगरेट-ओ-अल्फाज़,
धागा-ए-धुएँ से ग़ज़ल बांधते हैं रात भर।
सब हकीकत दिन में दिखा दे जहाँ मगर,
'ताइर', सपनें क्यों भला भागते हैं रात भर?
Tuesday, June 17, 2008
ज़रुर कोई तक़दीर का मारा होगा...
ज़रुर कोई तकदीर का मारा होगा वो,
वरना रात को सड़क पे kयों आवारा होगा वो?
शाम से ही चाँद की राह तकता रहे मगर,
डूबते आफ़ताब का ना सहारा होगा वो।
और फिर सुबह से पूजा करता है सूरज की,
पूनम तक चाँद का ना दुबारा होगा वो।
बचपन जो पुरा हाथ फैला कर बीते,
कभी तो सोचो कितना बेचारा होगा वो!
फिजूल की उम्मीद 'ताइर' लगा बैठा उस से,
ख़ुद का ना हो सका, क्या हमारा होगा वो ?
वरना रात को सड़क पे kयों आवारा होगा वो?
शाम से ही चाँद की राह तकता रहे मगर,
डूबते आफ़ताब का ना सहारा होगा वो।
और फिर सुबह से पूजा करता है सूरज की,
पूनम तक चाँद का ना दुबारा होगा वो।
बचपन जो पुरा हाथ फैला कर बीते,
कभी तो सोचो कितना बेचारा होगा वो!
फिजूल की उम्मीद 'ताइर' लगा बैठा उस से,
ख़ुद का ना हो सका, क्या हमारा होगा वो ?
Saturday, June 14, 2008
ग़ज़ल गुलाब ना महताब लिखते हैं...
ग़ज़ल गुलाब ना माहताब लिखते हैं,
हम तो तेरे सवाल का बस जवाब लिखते हैं।
जानते हैं सब लिखा हुआ है पहले से,
फ़िर भी क्यों जाने, लोग ख्वाब लिखते हैं?
सूरत उस चाँद सी पायी है तुने मगर,
सीरत जान कर ही हम आफ़ताब लिखते हैं।
हम तो चंद शेरो में बात तमाम कर दे,
आप जाने कैसे, मोटी किताब लिखते हैं?
हाल-ए-फकीर में इस लिए जी रहा 'ताइर',
वो हासिल-ए-ऊंस को ही खिताब लिखते हैं।
हम तो तेरे सवाल का बस जवाब लिखते हैं।
जानते हैं सब लिखा हुआ है पहले से,
फ़िर भी क्यों जाने, लोग ख्वाब लिखते हैं?
सूरत उस चाँद सी पायी है तुने मगर,
सीरत जान कर ही हम आफ़ताब लिखते हैं।
हम तो चंद शेरो में बात तमाम कर दे,
आप जाने कैसे, मोटी किताब लिखते हैं?
हाल-ए-फकीर में इस लिए जी रहा 'ताइर',
वो हासिल-ए-ऊंस को ही खिताब लिखते हैं।
Tuesday, June 10, 2008
वो छुप कर ज़माने से...
वो छुपकर ज़माने से मिलना सुनी गलियों में
वो दबी हुई बातें पिरोना उंगलियों में
चुपचाप बैठे बैठे लम्हों को जोड़ना
मिला कर सिर्फ़ आँखे अनकही बोलना
आज भी मेह्कता हैं हर वो पल
गुज़रा था संग तेरे जो कल
दिल में खूबसूरत तसवीर बना के
तनहा लम्हों को यादो से सजा के
ले जाता हैं दूर मुझे कहीं इस जहाँ से
मिलती है मुस्कान अश्कों से वहाँ पे
और मन शुक्रिया करता है ज़िंदगी का उस पल
जब याद आता है तुजसे मुलाक़ात का वो गुज़रा हुआ कल...
वो दबी हुई बातें पिरोना उंगलियों में
चुपचाप बैठे बैठे लम्हों को जोड़ना
मिला कर सिर्फ़ आँखे अनकही बोलना
आज भी मेह्कता हैं हर वो पल
गुज़रा था संग तेरे जो कल
दिल में खूबसूरत तसवीर बना के
तनहा लम्हों को यादो से सजा के
ले जाता हैं दूर मुझे कहीं इस जहाँ से
मिलती है मुस्कान अश्कों से वहाँ पे
और मन शुक्रिया करता है ज़िंदगी का उस पल
जब याद आता है तुजसे मुलाक़ात का वो गुज़रा हुआ कल...
Wednesday, June 4, 2008
एक चाह ये जीने की...
एक चाह ये जीने की, जो मिटती नहीं,
एक प्यास-ए-ऊंस, की बुझती नहीं।
एक मेरा हाल, हर समज से परे,
एक मेरी फितरत, जो बदलती नहीं।
एक है तू, की हर ख़याल में शामिल,
एक मेरी हस्ती, कहीं दिखती नहीं।
एक नशा धुएँ का, पल दो पल का,
एक आग इस दिल की, बुझती नहीं।
एक मेरी सूरत, हाल-ए-दिल बोल दे,
एक मेरी सीरत, ज़बान साफ खोलती नहीं।
एक तेरा जहाँ, हिसाब-किताब में कायम,
एक दुनिया- ए-'ताइर', हकीकत बनती नहीं।
एक प्यास-ए-ऊंस, की बुझती नहीं।
एक मेरा हाल, हर समज से परे,
एक मेरी फितरत, जो बदलती नहीं।
एक है तू, की हर ख़याल में शामिल,
एक मेरी हस्ती, कहीं दिखती नहीं।
एक नशा धुएँ का, पल दो पल का,
एक आग इस दिल की, बुझती नहीं।
एक मेरी सूरत, हाल-ए-दिल बोल दे,
एक मेरी सीरत, ज़बान साफ खोलती नहीं।
एक तेरा जहाँ, हिसाब-किताब में कायम,
एक दुनिया- ए-'ताइर', हकीकत बनती नहीं।
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