Friday, December 12, 2008

दिन ढलते ढलते...

काफ़ी समय के बाद कुछ रोमानी अंदाज़ की ग़ज़ल लिखी हैं...

दिन ढलते ढलते याद आया तो होगा,
तुम्हे मेरा ख़याल सताया तो होगा!

बेअसर ना गुजरी होगी रात तन्हाई की,
नींद ने भी ख्वाब, दिखाया तो होगा!

फिर सुबह आईने में देख ख़ुद को,
मुझे भी निगाह में पाया तो होगा!

तसव्वुर जब हर पहर सताने लगे,
बेकरार दिल को भी समजाया तो होगा!

'ताइर' के फन का भी जवाब नहीं कोई,
जागते हुए सपना ये सजाया तो होगा!

10 comments:

  1. बहुत उम्दा गजल है।बधाई।

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  2. उम्दा , बेहतरीन गज़ल साधुवाद स्वीकारें !

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  3. बेअसर न गुजरी होगी रात ..क्या बात कही दोस्त !
    ....अब तो हमें भी ऐसा लगा जैसे एक वक़्त गुजरा रूमानी गजल तुम्हारे पास से पढ़े या कुछ रूमानी सा लिखे ..

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  4. कहाँ थे ताइर भाई इतने दिनों से?

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  5. bahut dilkash andaaz bahut hi sundar

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  6. बेहतरीन ग़ज़ल जनाब...लिखते रहिये...
    नीरज

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  7. "फ़िर सुबह आईने में देख ख़ुद को, मुझे भी निगाह में पाया तो होगा"
    खुबसूरत है

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  8. धारधार ग़ज़ल है ताईर मिया..

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  9. बेहतरीन ग़ज़ल
    Regards

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  10. रात तो कटी जिस तरह कटी लेकिन
    सुबह आईने को कैसे समझाया होगा ?

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