Sunday, August 16, 2009
गन्दा है पर धंधा है ये...
और लोग क्या क्या नहीं करते उसके लिए...हर रोज़ कोई ना कोई नया करीना जान ने को मिलता हैं...और ये ही सब दिमाग में चल रहा था तब कुछ दिनों पहले 'फेसबुक' पे स्टेटस अपडेट किया...'सब गन्दा है पर धंधा है ये'...तो एक बहोत करीबी दोस्त हेमंत ने कहा की क्यों ना इसी लाइन को ले कर एक नया गाना लिखा जाए ? उसकी बात ने दिमाग के सोए हुए 'कीडे' को जगा दिया...और इस लाइन को ले कर एक अलग नज़रिए से नया गाना लिख दिया...
पैसे का ही सारा पंगा है ये
कहीं लूंट तो कहीं दंगा है ये
बुरा ना मानो यारों क्यों की,
सब गन्दा है पर धंधा है ये...
कोई थाली बेच के खता है
कोई पानी से भी कमाता है
कहीं भगवान के नाम चंदा है ये
सब गन्दा है पर धंधा है ये...
कोई कपडों का व्यापारी है
कहीं जिस्मों की सौदेबाज़ी है
बस दौलत की बहती गंगा है ये
सब गन्दा है पर धंधा है ये...
उलझे हैं सभी इस मायाजाल में
चाहिए पैसा, किसी भी हाल में
चाहे कैसा भी हो, 'चंगा' है ये
सब गन्दा है पर धंधा है ये...
( हेमंत ,शुक्रिया एक बार फिर से )
Tuesday, August 4, 2009
पत्थर को जो भी नाम दो...
कल शाम जब मन्दिर तोडा जाने वाला था, लोगो ने पत्थर मारना शुरू कर दिया। मामला गंभीर होता चला गया। ३०० से ज़्यादा पुलिस वाले आ गए और उन पर भी पत्थर फेंके गए । बाद में पुलिस ने टियर गैस शेल्स छोडे और हवा में फायरिंग की तब लोग थोड़े काबू में आए। मामला देर रात तक चलता रहा। बात मन्दिर की थी वोह तो लोग जैसे भूल ही गए और आपसी जात-पात को ले कर गुटों में फिर लड़ाई हो गई...देर रात srpf के और जवान बुलाने पड़े तब जा के मामला काबू में आया।
इस मामले से मन थोड़ा व्यथित हो गया। क्या किसी पत्थर में लोगों की 'आस्था' दुसरें लोगो की जान से ज़्यादा कीमती हैं, या फिर ये बस दिखावा हैं? कैसे कोई एक छोटा सा मन्दिर बचाने के लिए किसी का घर तोड़ सकता है?
जब कोई जवाब नहीं मिला, कोई हल नज़र नहीं आया तो कुछ लफ्जों का सहारा ले कर एक ग़ज़ल बुन ली...
तुम पत्थर को जो भी नाम दो, फर्क नहीं आ सकता,
कोई कैसे भी तराशे उसे, फितरत नहीं मिटा सकता।
बाँट दिया भागवान को तुमने जानें कितनें रूप में,
फिर लड़ते हो उसपे, तुम्हें भागवान भी नहीं बचा सकता।
जो तुम्हें यह बेशकीमती ज़िन्दगी दे सकता हैं,
उसे छोटी छोटी रिश्वत से मनाया नहीं जा सकता।
मन्दिर या मस्जिद में जाने की हिदायत ना दो मुझे,
मेरा खुदा चंद रुपियों से ख़रीदा नहीं जा सकता।
अगर हैं वजूद-ए-खुदा, तो तुझ में ही बसा है कहीं,
हाथ जोड़ने या फैलाने से उसे पाया नहीं जा सकता।
Saturday, August 1, 2009
ना जाने क्यों ?
रात को देर तक जागना, तनहाई की मेहफिल सजाना, सन्नाटों से बातें करना...कभी दुनियादारी से भागने का सबक था ये...और अब आदत...इसी आदत पर कुछ दिन पहले ये ग़ज़ल कही थी...
हर रात जागती हैं मेरी तनहाई, ना जाने क्यों?
संग होती रहती हैं मेरी रुसवाई, ना जाने क्यों?
यूँ तो उजाले भर पीछा नहीं छोड़ती मगर,
कड़ी धूप में खो जाए परछाई, ना जाने क्यों?
तुमने वादा किया था, दिल को ऐतबार भी था,
लेकिन मौके पे दुनियादारी दिखाई, ना जाने क्यों?
हर तरफ़ एक सन्नाटे का माहोल है बना हुआ,
फिर भी किसी की पुकार गुनगुनाई, ना जाने क्यों?
हम ज़िन्दगी से या ज़िन्दगी हम से नाराज़ रही?
ना आज तलक ये बात समझ आई, ना जाने क्यों?
Friday, July 24, 2009
भीड़ भी अब तेरी तन्हा सी लगती हैं
दुनिया, भीड़ भी अब तेरी तन्हा सी लगती हैं,
हर तरफ़ बाज़ार में कहाँ इन्सान की हस्ती हैं?
आदमी इसकदर गुलाम हो चुका पैसे का,
की हर शै से ज़्यादा अब ज़िन्दगी सस्ती हैं।
दिल में ही घूँट जाए जज्बात बयाँ हुए बिना,
हड्डी और माँस के बने ये मशीनों की बस्ती हैं।
रफ्तार-ए-ज़िन्दगी ख़ुद हमने, तेज़ कर दी इतनी,
पल भर के सुकून को हर साँस तरसती हैं।
Wednesday, June 3, 2009
Govt., racism and terrorism...
For last few days, everybody has been watching and reading about what is going on there in
And yesterday,
No one in
Why foreign ministry is not able to create any type of international pressure on
Looking at election results and then all these situations, I feel that the people have waken up, but the government is still sleeping.