Friday, July 24, 2009

भीड़ भी अब तेरी तन्हा सी लगती हैं

एक लंबे अरसे के बाद ब्लॉग्गिंग की और फिर से रुख हुआ हैं...एक नई ग़ज़ल पेश हैं...

दुनिया, भीड़ भी अब तेरी तन्हा सी लगती हैं,
हर तरफ़ बाज़ार में कहाँ इन्सान की हस्ती हैं?

आदमी इसकदर गुलाम हो चुका पैसे का,
की हर शै से ज़्यादा अब ज़िन्दगी सस्ती हैं।

दिल में ही घूँट जाए जज्बात बयाँ हुए बिना,
हड्डी और माँस के बने ये मशीनों की बस्ती हैं।

रफ्तार-ए-ज़िन्दगी ख़ुद हमने, तेज़ कर दी इतनी,
पल भर के सुकून को हर साँस तरसती हैं।

5 comments:

  1. 2 aur 3 sher bahut hi lajawab lage,sundr gazal

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  2. ताईर भाई... ग़ज़ल समां बाँध रही है...

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  3. रफ्तार-ए-ज़िन्दगी ख़ुद हमने, तेज़ कर दी इतनी,
    पल भर के सुकून को हर साँस तरसती हैं। boht sunder rachna....

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  4. दुनिया, भीड़ भी अब तेरी तन्हा सी लगती हैं,
    हर तरफ़ बाज़ार में कहाँ इन्सान की हस्ती हैं?

    wahhhhhhhhh sach kaha hai


    आदमी इसकदर गुलाम हो चुका पैसे का,
    की हर शै से ज़्यादा अब ज़िन्दगी सस्ती हैं।

    sach kaha hai sach

    दिल में ही घूँट जाए जज्बात बयाँ हुए बिना,
    हड्डी और माँस के बने ये मशीनों की बस्ती हैं।

    wahhhhhhhh

    रफ्तार-ए-ज़िन्दगी ख़ुद हमने, तेज़ कर दी इतनी,
    पल भर के सुकून को हर साँस तरसती हैं।

    kya baat hai taaeer sir ab bus yahi aas pass dikhte rahe

    lambe antraal ke baad aapke blog par halchal dekhi hai

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