Tuesday, September 2, 2008

रॉक ओन - लिव यौर ड्रीम

आज अपनी 'इमेज' से दूर हो के कुछ लिख रहा हूँ... मूवी 'रॉक ओन' पर... और आप बिल्कुल ही मत सोचियेगा की मैं एक और मूवी रिव्यू लिख रहा हूँ... नहीं, मैं तो बस उस मूवी की तारीफ़ में कुछ लिख रहा हूँ...

ये कहानी एक 'रॉक बैंड' की...कॉलेज के दिनों का सबसे कामियाब रॉक बैंड... ४ लोग... सबकी अपनी एक अलग पहचान ...फ़िर भी उस पहचान को भूल कर जीते हैं केवल एक पहचान के खातिर...'मैजिक ' (बैंड) की खातिर...

लेकिन हर व्यक्ति में एक 'इगो' कहीं न कहीं छुपा होता है...और क्रिएटिव लोगो में शायद थोड़ा ज़्यादा... (हाला की समजा ये जाता हैं की वो लोग 'डाउन टू अर्थ' होते हैं...पर ये ग़लत हैं...क्रिएटिव लोगों को अपने 'मान' का ज़्यादा ख़याल रहता हैं... शायद ना दिखाए...पर दिल में तो होता ही हैं) वो ही चीज़ 'मैजिक' को तोड़ती हैं...

और गुज़र जाते हैं १० साल... ४ लोग...४ अलग अलग शख्सियत...

एक है जो बीती हुई बातों को भुला कर आगे बढ़ जाता हैं जीवन में...यादों को बस दिल में दफन कर देता हैं...
दूसरा उन्ही यादों में उलझा रहता हैं... खूब टेलेंटेड होने के बावजूद बन के रह जाता हैं एक नाकामियाब इन्सान...
तीसरा...पहले जैसा था बिल्कुल वैसा ही... लूक्स बदल जाता हैं...स्वाभाव नहीं...ज़िन्दगी जब जब जो जो देती हैं...उसे अपना कर ही खुश हैं...
और चौथा... ज़िन्दगी से लड़ता हैं... हर पल एक लम्हा और चुराता हैं बची ज़िन्दगी में से... केवल एक ही सपना मन में...की 'मैजिक' फ़िर से जिंदा हो और स्टेज पर परफोर्म करें...

४ अलग अलग पहलू ज़िन्दगी के...४ अलग अलग शख्स एक ही ग्रुप के... कोई जज़्बात दिखता हैं...कोई दबा देता हैं... कोई जूठी हसीं सजा लेता हैं... तो कोई ज़िन्दगी का हर हाल अपना लेता हैं...

पर कहीं ना कहीं एक जज़्बा जो है...वो जिंदा हैं... और उसी के लिए फ़िर से मिलते हैं सब...और छा जाता हैं... 'मैजिक'...

मूवी देखते हुए काफ़ी यादें ताज़ा हो गयी... कितने सपने थे कॉलेज के दिनों के... क्या क्या प्लान्स किए थे दोस्तों के साथ...पर सब बिखर गए...'सेटल' होने के चक्कर में सब सपनों से 'बिछड़' गए... या फ़िर अपने आप से? ये बात तो बस दिल ही जानता हैं...

लेकिन...कुछ सपनें जो मरे नहीं...केवल बिछडे थे वो फ़िर मिल गए... शायद कभी सच भी हो जायेंगे...

तब तक के लिए...

'रॉक ओन'

12 comments:

  1. लेकिन...कुछ सपनें जो मरे नहीं...केवल बिछडे थे वो फ़िर मिल गए... शायद कभी सच भी हो जायेंगे...

    aur vo sab sach honge hi..
    "Magic" ki tarah..

    vaah taeer bhai.. aapki gazlon jesa hi behtarin aapke sochane ka andaz..

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  2. ye hamari apni kahani hai.ham sab bhi roti ki talash me creativity se door ho gaye the.tab aisa lagta tha jaise apni aatma ko hi kuchal diya.dam ghootta sa masoos hota tha.......kuchg samay goojra...ham phir se ap[ni aatma se joor gaye.aapki samiksha ne yaade taja kar di .maine film to nahi dekhi par ab dekhna chahoongi.....vaise sach hai ki 'kalakaaron' me maan kooch jyaada hota hai.vo maan oonki bhavookta se aata hai jo magic karta hai

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  3. और कुछ समझ आए न आए इतनी बात समझ आ गई की यह फ़िल्म देखनी है :-) ..ठीक कहा आपने "क्रिएटिव लोगों को अपने 'मान' का ज़्यादा ख़याल रहता हैं... शायद ना दिखाए...पर दिल में तो होता ही हैं"



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    एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.

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  4. आपने जिस तरह से लिखा है, उत्सुकता बढ़ गई है. कोशिश करता हूँ कि इस फ़िल्म को देखूं. वैसे कई जगह तारीफ सुनने को मिली है इस फ़िल्म की.

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  5. अभी देखी नही है कुछ मूवी कतार में है.....जैसे की मुंबई मेरी जान ,wednesday....आपकी स्टोरी सुनकर एक नोवेल याद आ गया ....."the class" पता नही कितने लोगो ने उसे पढ़ा होगा.......लगभग वैसी ही स्टोरी है...देखते है......इस शनिवार रात...

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  6. कहानी अच्छी लगी फिल्म देखने की इच्छा करने लगी है जरुर देखुंगी।

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  7. film dekhne ke baad comment karti hoon..

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  8. kal dekhi maine...sach kaha aapne....kafi yaade taza ho jaati hai ise dekhkar.... Nostalgia !!

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  9. movie dekh kar tipiyata hu.. aapke recommendation par pahle bhi film dekh chuka hu.. badhiya rahi..

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  10. have khabar padi.... namrata su puchti ti...

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  11. lekh निश्चित ही सराहनीय है.bhai aapka blog hai bahut haseen.ye to batao layout kahaan se liya.chura lene ka man karta hai
    कभी समय मिले तो हमारे भी दिन-रात आकर देख लें:

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