ब्लास्ट्स के बाद मन कुछ इस हाल में था की कुछ लिखने पढने का मन नहीं कर रहा था... बस एक ही सवाल था और है की...आख़िर और कब तक? क्यों हम कुछ नहीं कर रहे? क्यों इतने बड़े देश में कोई भी नेता नहीं जो जवाब दे कुछ गिने चुने कायरों को?
और कल आख़िर जवाब मिल ही गया जैसे... इतना ही ख्याल आया की आख़िर नेता भी तो आते हैं समाज से... लोग कहते हैं की वो नेता ऐसा बोलता हैं , और वो वैसा कहता हैं... पर मैं इतना ही समजता हूँ की नेता भी तो वोही बोलेंगे जो लोग सुन ना चाहते हैं... कोई धर्म के नाम पर...कोई जाती के...कोई भाषा के...कोई गरीबी के... सब अपने अपने तरीके से राजनीती करते हैं...
पर कामियाबी तो हम ही देते हैं ना उन्हें? आख़िर इस देश की जनता को भी तो वो ही सब बातों में मज़ा आता हैं... सब एक दुसरे पे ऊँगली उठाते हैं...बस....और कुछ नहीं...
लोगों ने कब किसी से हिसाब माँगा की ५ साल में कितना विकास हुआ? लोगों ने कब सुरक्षा को ले कर आवाज़ उठाई सरकार के खिलाफ़? शायद कभी नहीं...
सब राम सेतु को ले कर दंगा करेंगे... कहीं कोई दरगाह रास्ता बड़ा करने के लिए हटानी पड़े तो बवाल करेंगे... सबको आरक्षण चाहिए... हर जगह पे शार्टकट...
मैंने देखा है ... दो नए लोग एक दुसरे से मिलते हैं और जहाँ थोडी बातचीत होती हैं...सीधा ही पूछते हैं...आप किस भगवन में मानते हैं? किसकी पूजा करता हैं? आप का वतन कौन सा हैं?
और बात वहां नही रूकती... सामने वाला हर सवाल का जवाब भी विस्तार से देता हैं...(कर लो बटवारा...)
हर बात राजनीती से नहीं जुड़ी... हर बात जुड़ी है अपने समाज से...व्यक्तिगत ख्याल से...
पर शायद...सारी बातें फिजूल ही हैं...किसी को नहीं बदलना यहाँ... ओर ये भी अनुभव किया है मैंने की अगर कोई इन सब से ऊपर उठ के जीना चाहता भी है तो शान्ति से लोग जीने नहीं देते...
आज... २ साल पहले हुए मुंबई बोम्ब ब्लास्ट के बाद लिखी एक कविता फ़िर से लिखना लाज़मी लगता हैं...
यहाँ इतनी छोटी हैं हस्ती हमारी
जब चाहे कोई मिटा देता आ के,
पैसे का हथियार ओर हथियार से मौत
बढती नहीं दुनिया इस सोच से आगे...
बाज़ार में इस जहाँ के, बिक जाए वजूद,
ज़हन में झांखो, ये सच है या झूठ?
शामिल हैं हम भी इस तबाही की साज़िश में,
मौत के हाथों जिंदगी बेचने की गुजारिश में...
खामोश रह कर तमाशा देखते हैं
खुली आँखों पर भी परदा रखते हैं,
खुदगर्जी हमारी ले डूबेगी हम सब को
आज किसी ओर की, तो अपनी बारी आएगी कल को...
Wednesday, July 30, 2008
Thursday, July 24, 2008
क्या मैं वो ही हूँ या कोई और...?
उन दिनों की बात हैं जब मैं सपने बुना करता था
खुशी या ग़म से जीने का एहसास तो रहता था...
कभी एक मीठी नज़र कईं रंग भर जाती
तो बेरुखी से उस शख्स की दुनिया मुरझाती,
कभी जोश-ओ-जुनूँ होता मंजिल को पाने का
और कोई लम्हा रहता अश्को में समाने का।
उन दिनों...
हर छोटे हासिल से झूमता था जहाँ
और हर मात पे थमता था जहाँ
धीरे धीरे दौर वोह गुज़रता रहा
वक्त के साथ मैं भी ताल बदलता रहा
और आज जब देखा ख़ुद को
गुज़रे कल के आईने में
तो पाया ख़ुद को...
बेजान मूरत सा
बेनूर सूरत सा...
मैं भी दुनियादारी का शिकार हो गया
कुछ पाने की चाह में ख़ुद खो गया...
अब बढ़ रहा हूँ आगे
लेकिन तनहा है सफर
खोखली हसीं सजा तो ली
आंसू बह ना पाए मगर...
आज एक ही सवाल है ज़हन में...
' क्या मैं वो ही हूँ या कोई और,
या ये भी एक मकाम है,
गुज़र जाएगा ये दौर ? '
खुशी या ग़म से जीने का एहसास तो रहता था...
कभी एक मीठी नज़र कईं रंग भर जाती
तो बेरुखी से उस शख्स की दुनिया मुरझाती,
कभी जोश-ओ-जुनूँ होता मंजिल को पाने का
और कोई लम्हा रहता अश्को में समाने का।
उन दिनों...
हर छोटे हासिल से झूमता था जहाँ
और हर मात पे थमता था जहाँ
धीरे धीरे दौर वोह गुज़रता रहा
वक्त के साथ मैं भी ताल बदलता रहा
और आज जब देखा ख़ुद को
गुज़रे कल के आईने में
तो पाया ख़ुद को...
बेजान मूरत सा
बेनूर सूरत सा...
मैं भी दुनियादारी का शिकार हो गया
कुछ पाने की चाह में ख़ुद खो गया...
अब बढ़ रहा हूँ आगे
लेकिन तनहा है सफर
खोखली हसीं सजा तो ली
आंसू बह ना पाए मगर...
आज एक ही सवाल है ज़हन में...
' क्या मैं वो ही हूँ या कोई और,
या ये भी एक मकाम है,
गुज़र जाएगा ये दौर ? '
Sunday, July 20, 2008
देश में...
पिछले कुछ महीनों से जो हालात बने हुए है देश में...उस पर कुछ लिखना लाज़मी था...कहीं 'भूमिपुत्र' और भाषा के नाम पर गरीबों तो कहीं आतंकवाद की दहशत से मासूमों को जीने नहीं दिया जा रहा... कहीं बाप बेटी के ही खून के इल्जाम में फसा था तो कहीं आरक्षण के मुद्दे पर बवाल मचा था... और अब 'आश्रम' में बच्चों की हत्याओं को ले कर कहीं शहर में फ़िर से दंगे भड़क रहे हैं... तो व्यथित मन से उठे ख्यालों को लफ्ज़ दे दिए...
आज भी वो ही आलम बना हुआ है देश में,
मज़हब-ओ-ज़बां पे सब बँटा देखा है देश में।
हजारों साल से लड़ते लड़ते थके नहीं लोग,
और कहे 'देशप्रेम' का जज्बा भरा है देश में।
जगह जगह इश्वर-अल्लाह के मकान खड़े करें,
बेघर करोड़ों का जब की काफिला है देश में।
चोरी, डकैती, खुदकुशी, बलात्कार, और क्या क्या,
'भगवान' की दया से खूब बढ़ रहा है देश में।
माहोल में सबको बदलाव ज़रूर चाहिए मगर,
फ़िर भी कोई ख़ुद को ना बदलता है देश में।
आज भी वो ही आलम बना हुआ है देश में,
मज़हब-ओ-ज़बां पे सब बँटा देखा है देश में।
हजारों साल से लड़ते लड़ते थके नहीं लोग,
और कहे 'देशप्रेम' का जज्बा भरा है देश में।
जगह जगह इश्वर-अल्लाह के मकान खड़े करें,
बेघर करोड़ों का जब की काफिला है देश में।
चोरी, डकैती, खुदकुशी, बलात्कार, और क्या क्या,
'भगवान' की दया से खूब बढ़ रहा है देश में।
माहोल में सबको बदलाव ज़रूर चाहिए मगर,
फ़िर भी कोई ख़ुद को ना बदलता है देश में।
Thursday, July 17, 2008
बस...बहोत हो गया...
बड़े दिनों से अलग अलग ब्लॉग पर पढ़ रहा हूँ... नारी स्वातंत्र्य और नारी सशक्तिकरण के बारे में... लेकिन कभी इस चर्चा में शामिल नहीं हुआ था ये ही सोचते हुए की ... sometimes, no reaction is the best reaction... और वैसे भी इतने ज़्यादा लोग इस विषय पर लिख ही तो रहे हैं...की मेरे लिखने ना लिखने से फर्क ही नही पड़ता...
लेकिन आज लिखना ज़रूरी लग रहा हैं...एक साहब का ऑरकुट पर अपना ब्लॉग पढने के लिए संदेश आया...और पढ़ ली उनकी पोस्ट...और हो गया दिमाग ख़राब...
क्या है ये सब...जिसे देखो वो ' नारी सशक्तिकरण' और 'नारी स्वातंत्र्य' का झंडा लिए घूम रहा है अपने ब्लॉग पर...ऐसा लग रहा हैं जैसे इन्टरनेट की दुनिया में ब्लॉग के रास्ते रैली निकाली है सबने...
मैं कुछ चीजों पर ध्यान दोहराना चाहता हूँ... मेरे विचारो से किसी की सहमति नही चाहता ... बस अपने विचार लिख रहा हूँ...
सबसे पहली और अहेम बात तो ये ही है की ये जो लोग लिखे जा रहे है नारी उत्कर्ष के लिए... वोही सबसे बड़े दुश्मन बन रहे है नारी के...क्यों की पहले तो वो लोग बेवजह ही स्त्री - पुरूष भेदभाव फैलाते हैं... और बाद में विचार हीनता का इल्जाम किसी और पे ठोकते हैं... हाँ, मानता हूँ की 'मेल-फिमेल केमिस्ट्री' दुनिया की शुरुआत से थी और रहेगी आख़िर तक...लेकिन उसका एक अलग वजूद है और कशिश भी हैं... पर हर चीज़ को और हर विषय को केवल स्त्री-पुरूष के भेदभाव तक ले जाना या हर कहीं केवल वो ही देखना एक कमजोरी है...एक मानसिक बीमारी हैं...
दूसरी बात ये है की आप जब ऐसा लिखते हो 'नारी स्वातंत्र्य' उसका मतलब ही आप ये मानते हो की नारी गुलाम हैं...अरे ऐसे ख़यालात फैलाने की क्या ज़रूरत हैं? कौन कहता है की नारी गुलाम हैं? ये लिखने वाले लोगो के मन की उपज हैं... कईं बार तो ऐसा लगता हैं की उनको बस स्त्री-पुरूष भेदभाव भड़काना है और मज़ा लेना हैं...
हाँ...मैं ये ज़रूर मानता हूँ की अपने देश में काफ़ी जगाओ पर स्त्रियों के साथ ग़लत व्यवहार होता हैं...पर क्या ये केवल उन तक सिमित हैं? कभी इन चीज़ों से ऊपर उठ कर देखो तो ये हर जगह किसी न किसी रूप में फैला हैं... कभी बच्चो के साथ शिक्षक की और से तो कभी खूब कहलानेवाले 'संत' की और से... कभी संस्कार और परम्परा के नाम पर माता-पिता की और से बच्चो की बलि चढ़ती हैं... तो कभी माडर्न होने के नाम पर बच्चे माँ-बाप को घर से निकाल देते हैं... काफ़ी समस्याएं हैं...
फ़िर भी हर बार केवल नार नारी और नारी की बिन बजाने वाले लोगो को शायद और कुछ नज़र ही नही आता... और मान भी ले उनको सच में इतनी फिक्र हैं तो ज़रा वो ख़ुद अपने ज़हन में झान्खे और ख़ुद से पूछे की किसी पीड़ित नारी की मदद करने के लिए उन्होंने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने और कमेंट्स लेने के अलावा क्या किया? क्या कभी किसी को कहीं से छुडाने की कोशिश की? क्या कभी किसी को अपनी शक्ति के हिसाब से आर्थिक मदद की?
मैं यकीं के साथ कहता हूँ की नारी स्वातंत्र्य के आधे से ज़्यादा योद्धा इसका जवाब देने से कतरायेंगे...
(ये लेख किसी पर व्यक्तिगत रूप से नही लिखा गया हैं...)
लेकिन आज लिखना ज़रूरी लग रहा हैं...एक साहब का ऑरकुट पर अपना ब्लॉग पढने के लिए संदेश आया...और पढ़ ली उनकी पोस्ट...और हो गया दिमाग ख़राब...
क्या है ये सब...जिसे देखो वो ' नारी सशक्तिकरण' और 'नारी स्वातंत्र्य' का झंडा लिए घूम रहा है अपने ब्लॉग पर...ऐसा लग रहा हैं जैसे इन्टरनेट की दुनिया में ब्लॉग के रास्ते रैली निकाली है सबने...
मैं कुछ चीजों पर ध्यान दोहराना चाहता हूँ... मेरे विचारो से किसी की सहमति नही चाहता ... बस अपने विचार लिख रहा हूँ...
सबसे पहली और अहेम बात तो ये ही है की ये जो लोग लिखे जा रहे है नारी उत्कर्ष के लिए... वोही सबसे बड़े दुश्मन बन रहे है नारी के...क्यों की पहले तो वो लोग बेवजह ही स्त्री - पुरूष भेदभाव फैलाते हैं... और बाद में विचार हीनता का इल्जाम किसी और पे ठोकते हैं... हाँ, मानता हूँ की 'मेल-फिमेल केमिस्ट्री' दुनिया की शुरुआत से थी और रहेगी आख़िर तक...लेकिन उसका एक अलग वजूद है और कशिश भी हैं... पर हर चीज़ को और हर विषय को केवल स्त्री-पुरूष के भेदभाव तक ले जाना या हर कहीं केवल वो ही देखना एक कमजोरी है...एक मानसिक बीमारी हैं...
दूसरी बात ये है की आप जब ऐसा लिखते हो 'नारी स्वातंत्र्य' उसका मतलब ही आप ये मानते हो की नारी गुलाम हैं...अरे ऐसे ख़यालात फैलाने की क्या ज़रूरत हैं? कौन कहता है की नारी गुलाम हैं? ये लिखने वाले लोगो के मन की उपज हैं... कईं बार तो ऐसा लगता हैं की उनको बस स्त्री-पुरूष भेदभाव भड़काना है और मज़ा लेना हैं...
हाँ...मैं ये ज़रूर मानता हूँ की अपने देश में काफ़ी जगाओ पर स्त्रियों के साथ ग़लत व्यवहार होता हैं...पर क्या ये केवल उन तक सिमित हैं? कभी इन चीज़ों से ऊपर उठ कर देखो तो ये हर जगह किसी न किसी रूप में फैला हैं... कभी बच्चो के साथ शिक्षक की और से तो कभी खूब कहलानेवाले 'संत' की और से... कभी संस्कार और परम्परा के नाम पर माता-पिता की और से बच्चो की बलि चढ़ती हैं... तो कभी माडर्न होने के नाम पर बच्चे माँ-बाप को घर से निकाल देते हैं... काफ़ी समस्याएं हैं...
फ़िर भी हर बार केवल नार नारी और नारी की बिन बजाने वाले लोगो को शायद और कुछ नज़र ही नही आता... और मान भी ले उनको सच में इतनी फिक्र हैं तो ज़रा वो ख़ुद अपने ज़हन में झान्खे और ख़ुद से पूछे की किसी पीड़ित नारी की मदद करने के लिए उन्होंने ब्लॉग पर पोस्ट लिखने और कमेंट्स लेने के अलावा क्या किया? क्या कभी किसी को कहीं से छुडाने की कोशिश की? क्या कभी किसी को अपनी शक्ति के हिसाब से आर्थिक मदद की?
मैं यकीं के साथ कहता हूँ की नारी स्वातंत्र्य के आधे से ज़्यादा योद्धा इसका जवाब देने से कतरायेंगे...
(ये लेख किसी पर व्यक्तिगत रूप से नही लिखा गया हैं...)
Tuesday, July 15, 2008
हर दिन ढलता हैं...
हर दिन ढलता हैं, शाम-ए-याद का तोहफा दे कर
बह जाए दिल जिसमें, बिखरे हुए अरमान ले कर
गुमसुम सा मन, लाचार से जज़्बात मेरे
रौशनी की चाह में, ढूंढ लाते अंधेरे...
एक सन्नाटे सा माहोल बन जाए चारों ऑर
फ़िर भी ज़हेन में चले सवालों का शोर
क्यों ख्वाब सारे बिखर जाते हैं?
क्यों हसी के लम्हे आंसू दे जाते हैं?
क्यों कोई उम्मीद बर नही आती?
क्यों ऐसे तनहा हम जीए जाते हैं?
जवाब जब कहीं से नज़र नही आता,
खयालों की टक्कर से जब हार जाता
तो अपने ही ऊपर मैं हूँ मुस्कुराता
और ' आने वाला कल अच्छा है'
ये ही सोच के दिल बहलाता...
बह जाए दिल जिसमें, बिखरे हुए अरमान ले कर
गुमसुम सा मन, लाचार से जज़्बात मेरे
रौशनी की चाह में, ढूंढ लाते अंधेरे...
एक सन्नाटे सा माहोल बन जाए चारों ऑर
फ़िर भी ज़हेन में चले सवालों का शोर
क्यों ख्वाब सारे बिखर जाते हैं?
क्यों हसी के लम्हे आंसू दे जाते हैं?
क्यों कोई उम्मीद बर नही आती?
क्यों ऐसे तनहा हम जीए जाते हैं?
जवाब जब कहीं से नज़र नही आता,
खयालों की टक्कर से जब हार जाता
तो अपने ही ऊपर मैं हूँ मुस्कुराता
और ' आने वाला कल अच्छा है'
ये ही सोच के दिल बहलाता...
Sunday, July 13, 2008
थमी हुई सी हैं जिंदगी...
थमी हुई है जिंदगी आज उस मकाम पर,
पत्थर बन गया हूँ, मैं भी खुदा के नाम पर।
ना खुशी है ना ग़म, सारे एहसास लापता,
फ़िर क्या हसना-रोना, आगाज़ पे या अंजाम पर?
दुनिया से जो सीखा उसी को इस्तेमाल किया,
फ़िर जाने क्यों हैरान है सब मेरे इस काम पर?
काफ़िर का लगा तोहमत, जब हकीकत जान चुका,
लेकिन तुम्हे मेरा शुक्रिया अदा, दिए इनाम पर।
आसमां वाले का इन्साफ, 'ताइर' को ना समजाओ ,
जब बिकती है जिंदगी यहाँ चंद सिक्को के दाम पर।
पत्थर बन गया हूँ, मैं भी खुदा के नाम पर।
ना खुशी है ना ग़म, सारे एहसास लापता,
फ़िर क्या हसना-रोना, आगाज़ पे या अंजाम पर?
दुनिया से जो सीखा उसी को इस्तेमाल किया,
फ़िर जाने क्यों हैरान है सब मेरे इस काम पर?
काफ़िर का लगा तोहमत, जब हकीकत जान चुका,
लेकिन तुम्हे मेरा शुक्रिया अदा, दिए इनाम पर।
आसमां वाले का इन्साफ, 'ताइर' को ना समजाओ ,
जब बिकती है जिंदगी यहाँ चंद सिक्को के दाम पर।
Thursday, July 10, 2008
अब रिश्ता ख़तम करना लाज़मी हो गया...
कुछ महीनों पहले लिखी ये ग़ज़ल आज फ़िर से दोहराने का मन कर रहा हैं...
अब रिश्ता ख़तम करना लाज़मी हो गया,
की मैं तुम्हारे लिए, 'आम आदमी' हो गया।
नूर था कभी जो फलक के चाँद का,
आज वोही शख्स, बंजर ज़मीं हो गया।
कभी थी मुकम्मल हर तमन्ना तुजसे,
देख आज तू, दिल में कमी हो गया।
रोशन था हर मंज़र तेरे ही ख्याल से,
अब बहे जो आँखों से, वो नमी हो गया।
छोड़ दो 'ताइर' को बस उसके हाल पर,
यादों से ही जहाँ उसका, रेशमी हो गया।
अब रिश्ता ख़तम करना लाज़मी हो गया,
की मैं तुम्हारे लिए, 'आम आदमी' हो गया।
नूर था कभी जो फलक के चाँद का,
आज वोही शख्स, बंजर ज़मीं हो गया।
कभी थी मुकम्मल हर तमन्ना तुजसे,
देख आज तू, दिल में कमी हो गया।
रोशन था हर मंज़र तेरे ही ख्याल से,
अब बहे जो आँखों से, वो नमी हो गया।
छोड़ दो 'ताइर' को बस उसके हाल पर,
यादों से ही जहाँ उसका, रेशमी हो गया।
Tuesday, July 8, 2008
ना खुशी ना ग़म ना ख्वाहिश कोई...
ना खुशी ना ग़म ना ख्वाहिश कोई,
अब जिंदगी से रही न गुज़ारिश कोई।
खुदा भी थक गया इम्तिहान ले कर,
तभी नही करता वो आज़माइश कोई।
माफ़ किया तुझे, सब खता के बाद,
मत कर अब और तू फरमाईश कोई।
आंखों की प्यास आईने में झलक उठी,
सालों से नही हुई इन में बारिश कोई।
'ताइर' जी रहा बिल्कुल बेफिक्र यहाँ,
फकीर के खिलाफ़ क्या करें साज़िश कोई ???
अब जिंदगी से रही न गुज़ारिश कोई।
खुदा भी थक गया इम्तिहान ले कर,
तभी नही करता वो आज़माइश कोई।
माफ़ किया तुझे, सब खता के बाद,
मत कर अब और तू फरमाईश कोई।
आंखों की प्यास आईने में झलक उठी,
सालों से नही हुई इन में बारिश कोई।
'ताइर' जी रहा बिल्कुल बेफिक्र यहाँ,
फकीर के खिलाफ़ क्या करें साज़िश कोई ???
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