सुबह सुबह देखो अखबार के पन्ने
गुनाहों का जैसे कोई ग्रन्थ हो
कहीं भ्रष्टाचार कहीं डकैती
कहीं खून तो कहीं बलात्कार
कहीं आतंकी हमला
कहीं युद्ध का डंका
अच्छा कुछ पढने को
नया कुछ सिखने को
नज़र दौड़े भी तो कहाँ तक?
मन में कभी व्यथा तो कभी खौफ़
हावी हो जाते है इसकदर
की सवाल इतना ही होता हैं
आख़िर हम चलें है किधर?
कैसा जहाँ बनाना है हमें
आने वाली पीढ़ी को क्या दे जाना है ?
हो सकता है अखबार से निगाह चुरा लें
निगाह किसी और 'मीडिया' पे लगा लें
बात मगर वहीँ आ जाती है
आख़िर हमारी ये दुनिया
किस जानिब चले जाती है
हम उसे चलाते हैं
या लालच बहकाती है?
बेहतर कल की तो बातें है सारी
नहीं बची हम में खुद्दारी
धरती रहेगी जहाँ की तहाँ शायद
ले डूबेगी हमें खुदगर्ज़ी हमारी !
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