एक लंबे अरसे के बाद ब्लॉग्गिंग की और फिर से रुख हुआ हैं...एक नई ग़ज़ल पेश हैं...
दुनिया, भीड़ भी अब तेरी तन्हा सी लगती हैं,
हर तरफ़ बाज़ार में कहाँ इन्सान की हस्ती हैं?
आदमी इसकदर गुलाम हो चुका पैसे का,
की हर शै से ज़्यादा अब ज़िन्दगी सस्ती हैं।
दिल में ही घूँट जाए जज्बात बयाँ हुए बिना,
हड्डी और माँस के बने ये मशीनों की बस्ती हैं।
रफ्तार-ए-ज़िन्दगी ख़ुद हमने, तेज़ कर दी इतनी,
पल भर के सुकून को हर साँस तरसती हैं।