Tuesday, May 2, 2017

रोज़ सरहद पर होती है कुरबानी

आजकल देश की सेना पर रोज़ लगभग रोज़ हमले हो रहे हैं।  शायद देश को 'शहादत' की खबरों की इतनी आदत हो गई है की ज़्यादातर लोग अब इस बात पर गौर भी नहीं करते।  लेकिन सवाल ये है की आखिर कब तक हम यूँ ही सुनते रहे और सहते रहे? क्यों हमारे जवानों की ज़िन्दगी की अहमियत हम समझते नहीं? क्यों हमारा खून नहीं खौलता ये रोज़ के बलिदानों से? क्यों हम चुपचाप इसे बर्दाश्त कर रहे हैं?

हर सिपाही किसी घर का सदस्य भी होता है और उसकी ज़िन्दगी भी उसके परिवार के लिए इतनी ही किमती है जितनी आपकी और मेरी हमारे परिवार के लिए।  लेकिन शायद हम सवाल करना भूल गए हैं।  शायद हमें चुपचाप सहने की आदत सी लगी है।  लेकिन कल जो हुआ उस से भी खून ना खुले तो फिर सवाल हम पे उठने चाहिए ना की किसी  और पे...


रोज़ सरहद पर होती है कुरबानी
रोज़ घिसे पिटे दावों की वही कहानी
कब तक बर्दाश्त करें हम बोलो
अब ना खौले खून तो बर्बाद ज़िन्दगानी।

कोई जवाब तो देना ही चाहिए
इससे ज़्यादा ना आज़माइए
और ना सहा जाए कोई वार
ज़बाँ भी अब उनकी अपनाइए।

कब तक झूठा सीना तान चलना
अपनी ही बात कह कर मुकरना
होंसले कहीं पस्त ना हो जाये
वक़्त पे पड़ेगा अब कर गुज़ारना।

-ताइर