इस हालात-ए-देश की बात क्या करूँ
मैं गुस्सा हूँ, शर्मसार हूँ और फ़िर डरूं ?
यहाँ रोज़ होता है मासूमों से खिलवाड़
तबाह कर ज़िंदगियाँ गुनहगार जिए आज़ाद
जिस 'औरत' को देवी बना के पूजा जाता है
उसी को हवस से सरेआम रौंदा जाता है
संस्कृति और तहज़ीब का दावा होता है
पर आवाज़ जो उठाये उसे कुचला जाता है !
माँ, बहेन, बेटियाँ खॉफ़ का शिकार है
समाज में फैला ये कैसा विकार है
केवल बातों और वादों से चल रही सरकार है
उस से कोई उम्मीद भी अब रखना बेकार है l
कुछ करने का, बदलने का अब जो सबका विचार है
तो इस आगाज़ को अंजाम तक ज़रूर ले जाएंगे,
या फिर येही मान लें, हम सभी लाचार है l